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जिस परमाणु ताकत को लेकर इजराइल और ईरान में छिड़ी जंग, रूस है उसका असली किंग, कैसे बना बाहुबली?

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Jun 17, 2025    150818 views     Online Now 305
जिस परमाणु ताकत को लेकर इजराइल और ईरान में छिड़ी जंग, रूस है उसका असली किंग, कैसे बना बाहुबली?

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन

इजराइल और ईरान के बीच तनाव चरम पर है. दोनों के बीच ये लड़ाई परमाणु ताकत को लेकर हो रही है. इजराइल के साथ अमेरिका खड़ा है. दोनों ईरान को परमाणु संपन्न देश होते नहीं देखना चाहते हैं. वहीं ईरान इसे किसी भी कीमत में हासिल करना चाहता है. लेकिन क्या आपको पता है कि जिस परमाणु को लेकर मिडिल ईस्ट में ये जंग छिड़ी उसका असली किंग रूस है. व्लादिमीर पुतिन के शासन वाले इस मुल्क के पास परमाणु बम का जखीरा है. 400 या 500 नहीं, उसके पास 5459 परमाणु बम हैं. स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान (SIPRI) की नई रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है.

रूस के बाद दूसरे नंबर पर अमेरिका है. दुनिया के सबसे ताकतवर देश के पास 5177 परमाणु बम हैं. इन दोनों देशों के बाद तीसरे नंबर पर चीन है. वो भले ही तीसरे नंबर पर हैं, लेकिन संख्या के मामले में रूस और अमेरिका से बहुत पीछे है. ड्रैगन के पास कुल 600 परमाणु बम हैं. वहीं, फ्रांस के पास 290, यूके के पास 225, भारत के पास 180, पाकिस्तान के पास 170, इजराइल के पास 90 और नॉर्थ कोरिया के पास 50 परमाणु बम हैं.

रूस कैसे बना बाहुबली?

रूस कई वजहों से परमाणु बम का किंग बना. दुनिया में अमेरिका के बराबर खड़ा होना इसकी सबसे बड़ी वजहों में से एक है. साल था 1945. वर्ल्ड वॉर-2 खत्म हुआ था. इसी युद्ध के आखिरी दौर में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर में दो परमाणु बम गिराए. इस हमले में लाखों लोगों की मौत हुई. ये बात सोवियत संघ के प्रधानमंत्री रहे जोसेफ स्टालिन तक पहुंची. उन्हें लगा कि बिना परमाणु बम के उनका देश दुनिया के सबसे असुरक्षित देशों में एक हो गया है.

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अगर अमेरिका एक बटन दबाकर पूरे शहर को तबाह कर सकता है तो सोवियत संघ क्यों नहीं. फिर क्या था स्टालिन ने भी सोवियत संघ को परमाणु संपन्न बनाने की ठान ली. सोवियत संघ ने अमेरिका के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपना परमाणु हथियार कार्यक्रम शुरू किया. सोवियत खुफिया एजेंसियों ने अमेरिका के एटॉमिक बम प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी हासिल की, जिसमें पहले अमेरिकी परमाणु उपकरण का ब्लूप्रिंट भी शामिल था.

1949 में सफल हुआ टेस्ट

सोवियत संघ ने 1949 में अपने पहले परमाणु बम का सफलतापूर्वक परीक्षण किया, जिसे आरडीएस-1 या फर्स्ट लाइटनिंग के नाम से जाना जाता है. आरडीएस-1 के बाद सोवियत परमाणु कार्यक्रम का तेजी से विस्तार हुआ. 1950 के दशक के दौरान थर्मोन्यूक्लियर हथियार विकसित किए गए.

1941 से 1946 तक सोवियत संघ के विदेश मंत्रालय ने परमाणु बम परियोजना की रसद को संभाला. विदेश मंत्री व्याचेस्लाव मोलोतोव ने कार्यक्रम की दिशा को नियंत्रित किया. हालांकि, मोलोतोव एक कमजोर प्रशासक साबित हुए और कार्यक्रम स्थिर हो गया. अपने परमाणु बम परियोजना में अमेरिकी सैन्य प्रशासन के विपरीत, रूसियों के कार्यक्रम को मोलोतोव, लावरेंटी बेरिया, जॉर्जी मालेनकोव और मिखाइल पर्वुखिन जैसे राजनीतिक लोगों ने निर्देशित किया. इसमें कोई सैन्य सदस्य नहीं था.

हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमबारी के बाद कार्यक्रम का नेतृत्व बदल गया. स्टालिन ने 22 अगस्त 1945 को लावरेंटी बेरिया को नियुक्त किया. बेरिया को उस नेतृत्व के लिए जाना जाता है जिसने कार्यक्रम को अंतिम रूप दिया. इसके बाद सोवियत संघ ने 1961 में ज़ार बॉम्बा का विस्फोट किया, जो अब तक का सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली परमाणु हथियार था.

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1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस को परमाणु हथियार विरासत में मिला. रूस के अस्तित्व में आने के बाद अमेरिका से कंपटीशन जारी रहा. मार्च 1992 में अमेरिका, रूस और पच्चीस अन्य देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए. संधि सदस्यों को दूसरे के क्षेत्र में अनुसूचित टोही उड़ानें संचालित करने की अनुमति देता है. साल 1993 में अमेरिका और रूस ने START II पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसका उद्देश्य दोनों पक्षों के पास मौजूद सामरिक परमाणु हथियारों की संख्या को क्रमशः 3,500 तक सीमित करना था. लेकिन यह संधि कभी भी प्रभावी नहीं हुई.

1972 की ABM संधि को फिर से परिभाषित करने और उसे मजबूत करने के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने मार्च 1997 में एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर किए, जिसमें सामरिक और गैर-रणनीतिक, थिएटर, मिसाइल रक्षा प्रणालियों के बीच अंतर बताया गया. रूस ने 2000 में समझौते की पुष्टि की, लेकिन कभी भी अमेरिकी सीनेट को नहीं भेजा गया. 2001 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने घोषणा की कि वह एबीएम से अमेरिका को वापस ले लेंगे, जिससे समझौता प्रभावी रूप से समाप्त हो जाएगा.

ओबामा के दौर से आया बदलाव

इसके बाद 2009 में अमेरिका में ओबामा का दौर आया. उन्होंने कहा कि परमाणु निरस्त्रीकरण में दुनिया का नेतृत्व करना अमेरिका की नैतिक जिम्मेदारी है और उन्होंने मॉस्को के साथ नए रणनीतिक हथियारों की कटौती पर बातचीत करने का संकल्प लिया. ओबामा ने कहा था कि अमेरिका और रूस को अपने संबंधों को रीसेट करना चाहिए ताकि वे परमाणु अप्रसार, आतंकवाद विरोधी और वैश्विक आर्थिक मंदी सहित आम चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित कर सकें.

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