
डोनाल्ड ट्रंप और पीएम नेतन्याहू.
इजराइल और गाजा के बीच लंबे समय से जंग चल रही है. अमेरिकी राष्ट्रपति शुरू से इस लड़ाई में नेतन्याहू के साथ दे रहे थे. हालांकि अब बंधकों की रिहाई को लेकर इनके रुख में अब एक बड़ा बदलाव नजर आया है. यह बदलाव इतना गहरा है कि कई जानकार इसे सीधे-सीधे इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को सत्ता से हटाने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं.
हाल ही में सामने आईं कई घटनाएं और बातचीत इस ओर इशारा करती हैं कि अमेरिका अब नेतन्याहू के साथ नहीं चलना चाहता. ऐसे में अमेरिका न सिर्फ नेतन्याहू के विरोध में संकेत दिए जा रहा है, बल्कि अमेरिका अब हमास से भी सीधी बातचीत करने लगा है, जो अब तक उसकी नीति के बिल्कुल खिलाफ था.
खामनेई को गद्दाफी बनाने से किया इनकार
हाल ही में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामनेई को लेकर अमेरिकी अधिकारियों ने यह साफ कर दिया कि उनका उद्देश्य खामनेई को लीबिया के पूर्व शासक मुअम्मर गद्दाफी की तरह खत्म करना नहीं है. यह बयान उस वक्त आया जब इजराइल ईरान के खिलाफ सख्त सैन्य कार्रवाई की मांग कर रहा था. अमेरिका की यह नरमी न सिर्फ ईरान के प्रति रुख में बदलाव दर्शाती है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि वह अब इजराइल की हर नीति का आंख मूंदकर समर्थन नहीं करना चाहता.
तुर्की के एर्दोगान से टकराव को किया खारिज
इजराइली राजनीति में अक्सर तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान को कट्टर विरोधी माना जाता है. वहीं, अमेरिका ने साफ कर दिया कि वह एर्दोगान से किसी भी प्रकार की टकराव की स्थिति नहीं चाहता. इस रुख से इजराइल को स्पष्ट संकेत मिला कि अमेरिका अब पश्चिम एशिया में केवल इजराइल की लाइन पर नहीं चलना चाहता, बल्कि वह अपने कूटनीतिक समीकरणों को नए सिरे से गढ़ रहा है.

डोनाल्ड ट्रंप और नेतन्याहू.
हमास के नेताओं से चोरी-छिपे बातचीत
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों ने मार्च में तीन बार हमास नेताओं से गुप्त बातचीत की. ये बैठकें कतर के एक बंद परिसर में हुईं, जहां अमेरिकी बंधक एडन अलेक्जेंडर की रिहाई को लेकर बातचीत चली. यह पहली बार था जब अमेरिका ने हमास जैसे संगठन से सीधे संपर्क किया. इससे यह साफ होता है कि अमेरिका अब नेतन्याहू के ‘नो नेगोशिएशन विद टेररिस्ट्स’ पॉलिसी से अलग रुख अपनाने को तैयार है.
कुवैत में यहूदी विरोधी राजदूत की नियुक्ति
एक और चौंकाने वाला संकेत तब मिला जब अमेरिका ने कुवैत में ऐसे एंबेसडर की नियुक्ति की, जिन पर पहले यहूदी विरोधी टिप्पणियों के आरोप लगे थे. इस फैसले ने इजराइल को हैरान कर दिया. यह कदम व्हाइट हाउस के इस संकेत के रूप में देखा जा रहा है कि वह अब इजराइल की चिंताओं को प्राथमिकता नहीं दे रहा है, खासकर तब जब मामला इजराइल-विरोधी राजनीति का हो.
बंधक रिहाई डील पर बिफर पड़े नेतन्याहू
ट्रंप प्रशासन के विशेष दूत एडम बोहलर ने एडन अलेक्जेंडर की रिहाई के लिए हमास से डील करने की कोशिश की. उन्होंने 250 कैदियों के बदले अलेक्जेंडर की रिहाई की पेशकश की, जो बिना इजराइल की जानकारी के की गई थी. इससे नेतन्याहू प्रशासन बुरी तरह चिढ़ गया. इजराइली मंत्री रॉन डर्मर ने अमेरिका को चेतावनी दी कि इस तरह की एकतरफा कार्रवाई से पूरे क्षेत्र में हालात बिगड़ सकते हैं.
हमास की नई शर्तों पर अमेरिका की सहमति
बातचीत के दौरान हमास नेता खालिल अल-हय्या ने संकेत दिया कि संगठन पांच से दस साल का संघर्षविराम मान सकता है, बशर्ते हथियारों की बात बाद में की जाए. उन्होंने यह भी मांग की कि अमेरिका में बंद ‘हॉली लैंड फाउंडेशन’ के नेताओं को रिहा किया जाए. अमेरिका की ओर से इन शर्तों पर चर्चा करने की तत्परता दिखी, जो इस बात का संकेत है कि वह अब इजराइल के हितों से ऊपर अपने रणनीतिक लक्ष्यों को रख रहा है.

डोनाल्ड ट्रंप और पीएम नेतन्याहू.
नेतन्याहू के खिलाफ रणनीतिक चुप्पी
जब मार्च में यह बातचीत चल रही थी, तब अमेरिका ने जानबूझकर इजराइल को अंधेरे में रखा. इससे साफ है कि नेतन्याहू अब वॉशिंगटन के भरोसेमंद साथी नहीं रह गए हैं. इस चुप्पी को जानकार एक रणनीति मानते हैं, जिससे नेतन्याहू को सत्ता में कमजोर किया जा सके और उनकी राजनीतिक साख को चोट पहुंचाई जाए.
इजराइल ने फिर शुरू किया हमला
जब हमास ने बोहलर के प्रस्ताव को देर से स्वीकार किया, तब तक अमेरिका का प्रतिनिधिमंडल दोहा से रवाना हो चुका था और इजराइल ने गाजा में दोबारा सैन्य अभियान छेड़ दिया. यह घटनाक्रम अमेरिका और इजराइल के बीच बढ़ते अविश्वास को उजागर करता है. इस नाकामी का ठीकरा इजराइली सरकार पर फोड़ा जा रहा है, जो बातचीत में लचीलापन नहीं दिखा पाई.
क्या नेतन्याहू का टाइम खत्म?
इन सभी घटनाओं को जोड़कर देखें, तो अमेरिका का मौजूदा रवैया संकेत देता है कि वह अब नेतन्याहू को लंबे समय तक सत्ता में नहीं देखना चाहता. क्षेत्रीय स्थिरता, ईरान नीति, हमास से बातचीत और नेतन्याहू की कठोरता इन सबने वॉशिंगटन को यह सोचने पर मजबूर किया है कि बदलाव जरूरी है. आने वाले महीनों में यह तय होगा कि नेतन्याहू इस अमेरिकी ठंडे रुख से कैसे निपटते हैं और क्या वह सत्ता में टिक पाते हैं या अमेरिका उन्हें धीरे-धीरे किनारे लगा देगा.
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