
राष्ट्रपति पुतिन
रूस एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों को कुचलने के आरोपों के घेरे में आ गया है. इस बार निशाने पर है दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित मानवाधिकार संस्था. एमनेस्टी इंटरनेशनल. जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पहले ही सांसें गिन रही थीं, अब वहां मानवाधिकारों की अंतिम आवाज भी बंद कर दी गई है. तानाशाही मॉडल का एक नया उदाहरण पेश करते हुए रूस ने एमनेस्टी इंटरनेशनल को ‘अवांछनीय संगठन’ घोषित कर दिया है.
यह फैसला ना सिर्फ एक संस्था पर रोक है, बल्कि हर उस विचार पर प्रहार है जो नागरिक स्वतंत्रता की बात करता है. सोमवार को रूसी अभियोजन कार्यालय ने आधिकारिक रूप से एलान किया कि अब एमनेस्टी इंटरनेशनल रूस में किसी भी प्रकार की गतिविधि नहीं चला सकती और एक कानून के तहत इस संस्था को अवांछनीय घोषित कर दिया गया.
एमनेस्टी से संपर्क तो जाना पड़ेगा जेल
इतना ही नहीं, इस कानून के तहत ऐसे संगठनों से जुड़ाव या सहयोग करना भी एक अपराध माना जाएगा. अब जो भी इस संस्था से किसी भी प्रकार का संपर्क रखेगा, उसे सजा भुगतनी होगी. यह फैसला उस सख्ती की अगली कड़ी है जो रूस ने 2022 में यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से अपने भीतर के विरोधी स्वरों के खिलाफ अपनाई है. चाहे वे पत्रकार हों, एक्टिविस्ट हों या फिर आम नागरिक. जो भी क्रेमलिन की नीति पर सवाल उठाता है, वह अब रूसी राज्य व्यवस्था की नजर में अपराधी बन जाता है.
तानाशाही के मूड में पुतिन
एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था का बंद किया जाना बताता है कि पुतिन प्रशासन अब किसी भी आलोचना को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कई बार रूस में मानवाधिकारों के उल्लंघन, विरोधियों की गिरफ्तारी, मीडिया पर सेंसरशिप और असहमति की आवाजों को दबाने जैसे मामलों को वैश्विक मंचों पर उठाया था. यही कारण है कि अब क्रेमलिन उसे अपने लिए ‘खतरा’ मानने लगा था. इस संस्था की रिपोर्ट्स और जांचों ने अक्सर रूसी सरकार की कथित ज्यादतियों को उजागर किया है.
रूस की प्राथमिकता सिर्फ सत्ता
रूस का यह कदम ना सिर्फ लोकतंत्र के नाम पर एक तमाचा है, बल्कि यह संकेत भी है कि आने वाले समय में अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी इसी तरह निशाने पर आ सकती हैं. जहां एक ओर पूरी दुनिया मानवाधिकारों की रक्षा की बात कर रही है, वहीं रूस ने यह साफ कर दिया है कि उसकी प्राथमिकता सिर्फ सत्ता है. चाहे उसके लिए कितने भी मौलिक अधिकार कुचलने पड़ें. मानवाधिकार बनाम मास्को की यह लड़ाई अब सिर्फ एक संस्था की नहीं रही, यह संघर्ष अब विचारों की स्वतंत्रता और दमन के बीच का युद्ध बन चुका है.
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