
एआई जनरेटेड फोटो.
दो वर्ष पहले अपने घर में एक पूजा रखी गई. पुरोहित शांति कुंज (गायत्री मिशन) वालों की तरफ से बुलाया. पुरोहित महाशय गुजरात के पाटीदार समाज से थे. उन्होंने विधिवत पूजा कराई और दक्षिणा के लिए उसी तरह के ठन-गन दिखाये जैसे कि हमारे गांव के मिसिर जी दिखाते थे. उन्होंने स्वयं बताया कि पाटीदार समाज गुजरात में ओबीसी वर्ग से आता है. उसे आप यूपी का कुर्मी मान सकते हैं. हमारे घर की सभी महिलाओं ने उन पंडित जी के चरण-रज लिए, किसी ने नहीं कहा कि पुरोहित का ब्राह्मण होना अनिवार्य है. पुरोहित एक कर्म है, जो भी उस कर्म को समझता है, उसमें निष्णात है, वही पंडित है. उसके लिए जाति की बाध्यता कभी नहीं रही. ब्राह्मण को एक वर्ण कहा गया है. उसकी कोई जाति हो ऐसा वेदों में नहीं है.
जन्मना जायते शूद्र:
इसीलिए महाभारत में कहा गया है, जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्चते! यानी अपने कर्मों से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है. मनु स्मृति में भी ब्राह्मण एक वर्ण है. जिसका काम यज्ञ करना और कराना है. वेद और शास्त्र पढ़ना है लेकिन बाद में ब्राह्मण को समाज में जब प्रतिष्ठित स्थान मिलने लगा तो यज्ञ कर्म में लगे व्यक्तियों ने ब्राह्मण को जन्मना बना दिया. यानी जो ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ, वही ब्राह्मण. इस तरह ब्राह्मण एक जाति बनती गई. ब्राह्मण द्वारा कथा पढ़ना या उसके द्वारा पूजा करवाने जैसा भी कोई विधान नहीं है. क्योंकि पूजा करवाने में व्यक्ति को दान लेना पड़ता है. ब्राह्मण के लिए यह कर्म गर्हित है. आज भी ब्राह्मणों का 99 प्रतिशत हिस्सा अन्य काम करता है. एक पुजारी के रूप में कोई अपनी पहचान नहीं बताता क्योंकि पुजारी को समाज में सम्माननीय दर्जा नहीं है.
याचक और अयाचक ब्राह्मण
जिन ब्राह्मणों ने पुजारी का कर्म अपनाया वे पैर तो छुवा लेते हैं लेकिन कोई ब्राह्मण उन्हें अपने बराबर बिठाना पसंद नहीं करता. इसीलिए याचक और अयाचक ब्राह्मण बने. मराठों का जब उत्कर्ष हुआ तब पेशवा लोग ब्राह्मण थे. वे राजा लोग थे परंतु उस समय भी महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में याचक ब्राह्मण भी थे जिन्हें भिक्षुक ब्राह्मण कहा जाता है. झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के वैभव और उनकी वीरता का आंखों देखा वर्णन करने वाले विष्णु भट्ट गोडसे भिक्षुक ब्राह्मण थे और ऐसा उन्होंने स्वयं लिखा है. चूंकि रानी लक्ष्मी बाई अपने पुत्र का उपनयन करना चाहती थीं इसलिए दक्षिणा की उम्मीद लेकर महाराष्ट्र से भिक्षुक ब्राह्मणों की बड़ी संख्या झांसी में आई. परंतु उसी समय उत्तर के हिंदुस्तान में 1857 का गदर शुरू हो गया. बेचारे विष्णु भट्ट गोडसे कुछ भी यहां से ले न जा पाये.
व्यास जी भी ब्राह्मण नहीं थे
कथा बांचना और उसके लिए दक्षिणा लेना जैसा कर्म भी विद्वान के लिए उचित नहीं माना जाता. कथा बांचने का शौक है तो वह कहीं भी बैठकर सुनाइए. उसके लिए कोई जाति निर्धारित नहीं है. जिस व्यास पीठ पर बैठकर कथा बांची जाती है, वे व्यास जी स्वयं सत्यवती नाम की एक मछुवारी कन्या के पुत्र थे. हमारी पुरा कथाओं में मां का मान रखा जाता था. किसी भी जातक को उसकी मां के कुल-गोत्र से ही जाना जाता है. प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष ने अपने हर नाटक में लिखा है- इति साकेतस्य सुपर्णाक्षी पुत्र अश्वघोषम विराचितम! अर्थात् इसे साकेत (अयोध्या) के रहने वाले सुपर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष ने लिखा है. जिन सूत जी ने कथा सुनाई वे भी ब्राह्मण नहीं थे. तुलसी की रामचरित मानस में काकभुशंडि ब्राह्मण नहीं बल्कि एक पक्षी कौआ हैं. पर कथावाचकों को पंडित जी कहा जाता रहा है.
अलवार संत तो कमकर जातियों से आए
राम कथा और कृष्ण कथा को जन-जन तक पहुंचाने वाले अधिकांश भक्त कवि ब्राह्मण नहीं थे. ईसा की पांचवीं सदी से तमिलनाडु में अलवार संतों ने विष्णु कथा की शुरुआत की. ये अलवार संत ब्राह्मण नहीं बल्कि वहां की कमकर जातियों से थे. अपनी व्यथा को भुलाने के लिए उन्होंने विष्णु नाम का सहारा लिया. इन्हीं विष्णु के अवतार थे राम और कृष्ण. वहां शिव की कथा सुनाने वाले नायनार संत थे. 12 अलवार संत थे और 63 शिव भक्त नायनार. पांचवीं से दसवीं शताब्दी तक ये अलवार और नायनार संत समाज में प्रतिष्ठित हो चुके थे. फिर इन्हीं संतों से प्रेरणा ले कर कुछ आचार्य उत्तर की तरफ आए. भक्ति परंपरा को रामानंद लाए लेकिन वे किसी ब्राह्मण परंपरा से इतर थे. कबीर और तुलसी दोनों उनके शिष्य थे. एक निर्गुण और एक सगुण शाखा के.
भक्त कवियों में ब्राह्मण कहां!
इनके अलावा संत रविदास, मीराबाई, सूरदास, गुरु नानक देव आदि अनेक संत हुए पर कोई भी ब्राह्मण नहीं था. लेकिन ब्राह्मणों ने इनको स्वीकार किया. ऐसे में इटावा में ब्राह्मणों द्वारा एक यादव के कथा वाचन में बाधा डालना हिंदू परंपरा को भंग करना है. किसी भी जाति या समुदाय का व्यक्ति कथा बांच सकता है. रसखान का पूरा नाम सैयद इब्राहीम खान था और वे पठान वंश के थे. रसखान ने अपने बारे में लिखा है- देखि गदर हित साहिबी दिल्ली नगर मसान, छिनहिं बादसा-बंस की ठसक छांड़ि रसखान! इन लाइनों से पता चलता है कि कृष्ण भक्त कवि रसखान दिल्ली के किसी बादशाह परिवार से ताल्लुक़ रखते थे. उन्होंने तो मुस्लिम होते हुए भी पुनर्जन्म की कल्पना की. वे लिखते हैं- मानुष हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गांव के गवारन
रसखान और रहीम वैष्णव कवि
इसीलिए रसखान को 252 वैष्णवों की वार्ता में स्थान मिला है. इसी तरह बादशाह अकबर के नौ-रत्नों में से एक तो इस तरह भक्ति में रमे कि लिखते हैं,अच्युत चरण तरंगिनी, शिव सिर मालति माल. हरि न बनायो सुरसरी कीज्यो इंदव भाल.
लोक मान्यता है कि गंगा में नहाने वाला व्यक्ति या तो विष्णु लोक में जाता है या शिव लोक में. किंतु अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-खाना गंगा जी से अनुरोध करते हैं कि मां गंगा तू मुझे शिव लोक में भेजना क्योंकि विष्णु के तो तुम पांव पखारती हो और शिव के सिर पर विराजमान हो. मेरी मां पांव पखारे, यह मुझे स्वीकार नहीं होगा. आप मेरे सिर पर विराजो. किसी भी कवि में ऐसी कल्पना तभी उमड़ेगी जब वह किसी पौराणिक कथा में डूबा हो. ऐसे भाव किसी भी हिंदू कवि में नहीं दिखते.
मुंशी रहमान अली रामायणी
कथावाचकों और पुरोहितों तथा पुजारियों के लिए पंडित जी संबोधन सामान्य है. इस संबोधन का ब्राह्मण समुदाय से कोई वास्ता नहीं है. कथावाचक मुंशी रहमान अली खां पंडित जी नाम से विख्यात थे. उन्हें अंग्रेज डच गुयाना गिरमिटिया मजदूर बना कर ले गए. वे हमीरपुर, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी थे. जाते समय वे तुलसी की रामचरित मानस का एक गुटका साइज़ ग्रंथ ले गए. वे वहां मजदूरों को फुरसत के समय रामायण बांचकर सुनाते. इसलिए मुंशी रहमान अली रामायणी के नाम से विख्यात हुए. बाद में उन्हें पंडित जी कहा जाने लगा था. 1874 में पैदा हुए मुंशी जी की इह-लीला 1972 में समाप्त हुई. उन्होंने अपने बारे में लिखा है, कमिश्नरी इलाहाबाद में ज़िला हमीरपुर नाम. बिवांर थाना है मेरा मुक़ाम भरखरी ग्राम. सिद्धि निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्वी पाय. मास शत्रु तिथि तेरहवीं डच गयाना आय.
पुंडरीक जी की राम कथा
अगर मुंशी रहमान अली जैसे लोग न होते तो डच-गुयाना, सूरीनाम, मारिशस, फिजी के जिन भारतवंशियों को हम याद करते हैं, वे आज हिंदू न होते. आज भी कथावाचकों में सबसे ऊपर मुरारी बापू हैं. जो जन्मना ब्राह्मण नहीं हैं. उनकी विद्वता ही उनके श्रेष्ठ होने की पहचान है. बाबा जय गुरुदेव ब्राह्मण नहीं थे. लेकिन लाखों ब्राह्मण उनके पांव पड़ते देखे हैं. स्वामी रामदेव भी ब्राह्मण नहीं हैं. और तो और दशनामी नागा साधुओं में कई महा मंडलेश्वर ब्राह्मण नहीं हैं. सिर्फ शंकराचार्यों को छोड़कर ब्राह्मण किसी भी महंत के लिए ब्राह्मण होना कोई अनिवार्य नहीं है. चित्रकूट के रामायण मेले में सैयद महफ़ूज़ अली पुंडरीक आया करते थे. वे भागवत कथा बड़े प्रेम से सुनाते. सफ़ेद धोती कुर्ता वाले पुंडरीक जी का मुंह पान से भरा रहता.
जाति के नाम पर अपमानित करना ग़लत
पुंडरीक जी संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी और फ़ारसी के विद्वान थे तथा ईस्टर्न रेलवे के कोलकाता मुख्यालय में महा प्रबंधक (राजभाषा) के पद से रिटायर हुए. वे कविता भी लिखते थे. इसलिए कथा को जाति बंधन बांध कर लोग हिंदू धर्म को कमजोर कर रहे हैं. अगर कोई व्यक्ति ग़लत है, किसी के साथ अनुचित व्यवहार करता है तो उसकी शिकायत कीजिए. किंतु उसका सिर मूंड़ना और जाति के नाम पर अपमानित करना अत्यंत निकृष्ट कर्म है. इसके लिए दोषी व्यक्तियों को सजा मिलनी चाहिए.
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