
मालदीव हर साल 26 जुलाई को आजादी का जश्न मनाता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 जुलाई को मालदीव की यात्रा पर जा सकते हैं. वहां वह मालदीव के स्वाधीनता दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में हिस्सा लेंगे. राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू के नवंबर 2023 में पदभार संभालने के बाद प्रधानमंत्री मोदी की यह पहली मालदीव पहली यात्रा होगी. इसके लिए मालदीव के मुइज्जू ने साल 2024 में ही प्रधानमंत्री मोदी को आमंत्रित किया था. हाल ही में अपनी भारत यात्रा के दौरान मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला खलील ने फिर से इस निमंत्रण को दोहराया. आइए जान लेते हैं कि मालदीव 78 सालों तक किसका गुलाम रहा और बिना कोई बड़ी जंग लड़े ही इसे आजादी कैसे मिली थी?
अपने 1192 द्वीपों, बीचों, लगून आदि के लिए जाना जाने वाला मालदीव 78 सालों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा. 26 जुलाई 1965 को मालदीव के प्रधानमंत्री इब्राहिम नासिर और क्वीन एलिजाबेथ की ओर से ब्रिटिश अंबेसडर माइकल वाल्कर के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर के बाद इस देश को पूरी स्वाधीनता हासिल हुई.
कैसे गुलाम हुआ था मालदीव?
यह साल 1887 की बात है, जब मालदीव के सुल्तान मुहम्मद मुईनुद्दीन द्वितीय ने सीलोन में ब्रिटिश गवर्नर आर्थर चार्ल्स हैमिल्टन-गोर्डन के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर कर सत्ता अंग्रेजों को सौंप दी थी. हालांकि, ऐसा बिना किसी प्रयोजन के नहीं किया गया था. दरअसल, 1800 के आखिरी वर्षों में मालदीव में विदेशी व्यापार पर भारत के बोरा व्यापारियों का दबदबा था. इसके कारण मालदीव के स्थानीय लोगों ने बोरा व्यापारियों के खिलाफ बगावत कर दी. चूंकि उस वक्त बोरा समुदाय एक बड़ा मुद्दा था, इसलिए पूरे मामले में ब्रिटिश साम्राज्य ने हस्तक्षेप कर दिया, जिससे मालदीव में ब्रिटेन की राजनीतिक उपस्थिति और दबाव बढ़ने लगा.
इसलिए विदेश नीति के संदर्भ में मालदीव की संप्रुभता बचाए रखने के लिए साल 1887 का समझौता किया गया, जिसके चलते मालदीव ब्रिटिश संरक्षण वाला देश बन गया. हालांकि, वहां की आंतरिक सरकार बरकरार रही.

साल 1960 के दशक में मालदीव की आजादी की मांग में तेजी आई.
एयरफोर्स स्टेशन बना लिया
इस समझौते के तहत अंग्रेजों ने मालदीव को सैन्य सुरक्षा का आश्वासन भी दिया, जिसके बदले में ब्रिटिश राजशाही को सालाना भेंट मिलनी थी. इस समझौते के बाद अंग्रेजों की उपस्थिति मालदीव में बरकरार रही और खासकर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मालदीव के गैन आईलैंड पर एक रॉयल एयरफोर्स स्टेशन आरएएफ गैन की स्थापना कर ली. गैन द्वीप भी मालदीव के द्वीपों का ही एक हिस्सा है, जिन्हें मिलाकर मालदीव बना है.
1960 के दशक में आजादी की मांग में आई तेजी
साल 1960 के दशक में मालदीव की आजादी की मांग में तेजी आई. वहां हुईं दो घटनाओं ने मालदीव की आजादी की मांग तेज कर दी. इतिहासकार मोहम्मद शातिर के अनुसार देश के दक्षिणी हिस्से में क्रांति को हिंसक तरीके से कुचल दिया गया था. इसके कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इब्राहिम नासिर की भी आलोचना की गई, जो साल 1958 में केवल 31 साल की उम्र में मालदीव के प्रधानमंत्री बने थे और जिनको देश के औद्योगिक क्षेत्र के विकास के लिए जाना जाता है. इसके अलावा मालदीव के माले से बोरा व्यापारियों को बाहर कर दिया गया.
वैसे मालदीव की आजादी में जहां बहुत से लोगों का हाथ बताया जाता है, वहीं इब्राहिम नासिर को ही बहुत से लोग मालदीव की स्वाधीनता का हीरो मानते हैं. इतिहासकार मानते हैं कि देश को फिर से एकजुट करना और बोरा समुदाय से देश की अर्थव्यवस्था पर फिर से नियंत्रण हासिल करना यह दर्शाता था कि मालदीव में पूरी तरह स्वाधीनता हासिल करने का साहस है.
सरकार के साथ खड़ी हुई जनता
इतिहासकार मोहम्मद शातिर कहते हैं कि यह वह दौर था, जब राष्ट्रीयता और एकता की भावना मालदीव के लोगों में काफी मजबूत थी. हर कोई एकजुट होकर साथ खड़ा था. इससे मालदीव के शासकों के लिए यह आसान हो गया कि वह अपनी स्वाधीनता के साथ खड़े हों. अगर देश में इसको लेकर लोग बंटे होते तो शायद आजादी न मिल पाती. लेकिन लोग साथ खड़े थे तो मालदीव सरकार ने आजादी की मांग रख दी. इसको देखते हुए आम जनता ने भी अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. इसको देखते हुए अंग्रेजों ने 26 जुलाई 1965 को समझौते पर हस्ताक्षर कर मालदीव को पूरी स्वाधीनता प्रदान कर दी.
जनमत संग्रह के जरिए लोकतांत्रिक देश बना
अपनी आजादी के दो महीने के भीतर ही यह द्वीपीय देश यूनाइटेड नेशंस का सदस्य बन गया. साल 1968 में इस बात पर राष्ट्रीय जनमत संग्रह कराया गया कि मालदीव को संवैधानिक राजशाही के अधीन रहना चाहिए या फिर लोकतांत्रिक देश के रूप में. इस जनमत संग्रह में हिस्सा लेने वाले 81.23 फीसदी लोगों ने इच्छा जताई कि देश को एक लोकतंत्र में तब्दील होना चाहिए. इसके साथ ही मालदीव में 853 साल पुरानी राजशाही इतिहास बन गई और इब्राहिम नासिर देश के पहले राष्ट्रपति बनाए गए.
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