महाकुंभ. (फाइल फोटो)
अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल इलाहाबाद के महाकुंभ में 45 करोड़ लोग स्नान करेंगे. 13 जनवरी से 26 फ़रवरी तक चलने वाले इस कुम्भ में छह शाही स्नान हैं. पहला 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा का स्नान और आखिरी 26 फरवरी शिवरात्रि को. बीच में 14 जनवरी को मकर संक्रांति, 29 जनवरी को मौनी अमावस्या, तीन फ़रवरी को बसंत पंचमी, 12 फरवरी को माघी पूर्णिमा का भी शाही स्नान होगा. 44 दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में 45 करोड़ लोगों के स्नान की बात गले से उतरती नहीं.
देश की आबादी 140 करोड़ भी मान लें तो भी 45 करोड़ की संख्या बहुत अधिक है. मोटा-मोटी पूरी आबादी का एक तिहाई. जबकि हिंदू आबादी 110 करोड़ के ही क़रीब होगी. इसमें से 30 करोड़ वे लोग हैं, जो सनातन हिंदू परंपरा को नहीं मानते. बाक़ी जो बचे उनमें से बहुत की स्नान में रुचि नहीं होगी. स्वयं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने X पर बताया है कि मकर संक्रांति के रोज 3.5 करोड़ लोगों ने डुबकी लगाई.
अतिरंजित अनुमान
मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ का यह भी दावा है कि मौनी अमावस्या (29 जनवरी) को 10 करोड़ लोग स्नान करेंगे. वो यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि 26 फरवरी तक 45 करोड़ लोग स्नान कर लेंगे. यह आंकड़ा अतिरंजित लगता है. इसमें कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश सरकार के विज्ञापनों के चलते इस बार कुम्भ स्नान का क्रेज़ बढ़ा है. मगर कुम्भ में तो बिना प्रचार-प्रसार के भी लोग सदियों से आ रहे हैं. जब न रेलें थीं न बसें और न कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट तब भी लोग जुटते थे.
इस जुटान को ही कुम्भ कहा गया है. कुम्भ में आचार्यों के बीच शास्त्रार्थ होता था, व्यापारी अपना माल ले कर आते थे और खरीदारी भी होती थी. प्राचीन भारत में जब आज की तरह हाट-बाज़ार नहीं थे तब मेलों से ही लोग घर-गृहस्थी का सामान खरीदते. बड़ी खरीदारी के लिए कुम्भ में जुटते.
वैज्ञानिकता का अभाव
अपने देश में कई चीजें इतनी गड्ड-मड्ड हो गई हैं कि वैज्ञानिकता को आधार बना कर कुछ भी नहीं समझा गया. न इतिहास न संस्कृति न सभ्यता को. हर तरफ़ अतिरंजना का बोलबाला है. एक तरफ वे लोग हैं, जो भारतीय पुराणों को गप कह कर नकार देते हैं. वो वेदों को सिर्फ आदिम मनुष्य की कल्पना मानते हैं. दूसरी तरफ वो लोग हैं, जो वेद और पुराण से आगे कुछ मानते ही नहीं. उनके अनुसार सारा ज्ञान-विज्ञान बस वेदों, पुराणों में ही है. ऐसे में यथार्थ को स्वीकार करना और वैज्ञानिक दृष्टि को विकसित करना बहुत मुश्किल होता है. यही स्थिति कुम्भ में स्नान करने आए लोगों की गणना को ले कर है. कुछ लोग यह संख्या हज़ारों में बताते हैं तो कुछ लाखों और कुछ करोड़ों में. ऐसे में सही आंकड़ा किसका माना जाए, इसे लेकर विभ्रम की स्थिति है.
इतिहास को समझने की औपनिवेशिक दृष्टि
अपने देश में इतिहास को समझने की कोशिश भी कभी सम्यक् तरीक़े से नहीं हुई. विदेशी आक्रांताओं द्वारा लिखे को ही इतिहास मानने की भूल यहां सभी ने की. समय, काल और परिस्थितियों पर विचार किसी ने नहीं किया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और प्रतिष्ठित इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी का कहना है कि हमारे देश के इतिहास को या तो औपनिवेशिक दृष्टि से देखा गया अथवा घोर दक्षिणपंथी दृष्टि से.
नतीजा यह है कि कुंभ का इतिहास भी अंधेरे में है. यूं तो कुम्भ स्नान का वर्णन ऋग्वेद के छठे मंडल में है, अथर्व वेद में है. महाभारत में युधिष्ठिर के युद्ध में हुई हिंसा के प्रायश्चित के बारे में जब भीष्म पितामह से पूछते हैं, तब वे उन्हें जिन नदियों के संगम में स्नान को कहते हैं, उनमें गंगा और यमुना का संगम भी है. पर यह कुम्भ का प्रमाण नहीं है.
ह्वेनसांग का वर्णन
कुम्भ का पहला वृत्तांत चीनी यात्री ह्वेनसांग का लिखा मिलता है. वह सातवीं शताब्दी में भारत आया था. उसने नालंदा जा कर बौद्ध दर्शन का सम्यक् अध्ययन किया. वह कन्नौज भी गया और तत्कालीन सम्राट हर्ष वर्धन से मिला. ह्वेनसांग प्रयाग के कुम्भ में सम्राट हर्ष वर्धन के साथ 643 ईस्वी में पहुंचा. उसने अपने वृत्तांत में लिखा है, दो नदियों गंगा और यमुना के बीच प्रयाग है. यहां बहुत सारे फलदार वृक्ष हैं. हिंदू देवी-देवताओं के मंदिर हैं. हर जगह रेत ही रेत दिखती है. जिस जगह ये दोनों नदियां मिलती हैं, यहां के लोग उसे महादानभूमि कहते हैं.
गंगा के उत्तरी तट पर हर्षवर्धन का शिविर लगा था. सुबह हर्षवर्धन सैनिकों के साथ जलपोत से महादानभूमि पहुंचे. मैं भी उनके साथ था. कई देशों के राजा इंतजार कर रहे थे. साधु-संत, गरीब, रोगी और विधवा, हर तरह के लोगों का हुजूम उमड़ा था. ह्वेनसांग के अनुसार, हर्षवर्धन ने सबसे पहले महादानभूमि के भीतर बनी एक झोपड़ी में बुद्ध की मूर्ति स्थापित की. उसका श्रृंगार किया और बहुमूल्य रत्न चढ़ाए. तरह-तरह के वाद्ययंत्र बजाए गए.
हर्षवर्धन का दान
राजा ने कपड़े, रत्न और भोजन लोगों के बीच वितरित किया. दूसरे दिन उन्होंने सूर्य की मूर्ति और तीसरे दिन महादेव की मूर्ति स्थापित की. चौथे दिन बौद्ध भिक्षुओं को सोने के सिक्के बांटे. इसके बाद साधु-संतों को बहुमूल्य रत्न दिए. फिर विधवा, अनाथ और रोगियों को दान दिया. इस तरह लगातार 74 दिनों तक हर्षवर्धन दान करते रहे. उन्होंने पूरा खजाना खाली कर दिया. अंत में अपना मुकुट भी दान कर दिया.
इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी बताते हैं कि हर्षवर्धन हर 6 साल बाद संगम आते और सब कुछ दान कर चले जाते. तब बड़ी संख्या में लोग वहां स्नान-दान के लिए जुटते थे. उस वक्त के इतिहास में कुंभ शब्द का जिक्र नहीं है, लेकिन जिस तरह से ह्वेनसांग कहानी बताते हैं, वो इस बात का प्रमाण है कि हर्षवर्धन कुंभ या अर्ध कुंभ के दौरान प्रयाग आते थे.
धर्मध्वजा नागा सन्यासियों के पास
नाथ पंथ और गुरु गोरक्षनाथ शीर्षक अपनी पुस्तक में हेरंब चतुर्वेदी लिखते हैं, हर्षवर्धन के समय कुंभ में दशनामी प्रमुख डेरे पर 52 मढ़ियों का प्रतीक, 52 हाथ ऊंचे खंभे पर 52 हाथ लंबा गेरुवे वस्त्र की ध्वजा लगाई जाती थी. हर्षवर्धन की फौज इन ध्वजाओं को संभाल नहीं पा रही थी. जिसके बाद नागा संन्यासियों ने कुंभ में धर्मध्वजा संभालने का जिम्मा उठाया. उसी समय से नागा संन्यासी परंपरा में धर्मध्वजा फहराने का प्रचलन है. तब बड़ी संख्या में लोग वहां स्नान-दान के लिए जुटते थे. उस वक्त के इतिहास में कुंभ शब्द का जिक्र नहीं है. पर नाथ पंथ और गुरु गोरक्षनाथ किताब में भी हर्षवर्धन के कुंभ में शामिल होने का जिक्र मिलता है.
40 हजार वर्ग मीटर बनाम 45 करोड़
2025 के इलाहाबाद कुम्भ में चार बड़े स्नान क्षेत्र बनाये गये हैं और इन्हें 25 सेक्टरों में बांट कर कुल 40 वर्ग किमी का इलाक़ा स्नान के लिए नियत है. एक व्यक्ति को स्नान के लिए कम से कम एक वर्ग मीटर का दायरा तो चाहिए ही. ऐसे में 40 हज़ार वर्ग मीटर में कैसे 3.5 करोड़ लोग स्नान कर सकते हैं. अगर औसत एक मिनट एक व्यक्ति को दिया जाए तो भी यह गणना 24 घंटे के स्नान में 40 से 50 लाख तक ही जाएगी.
यूं भी प्रशासन करोड़ों की संख्या को संभाल भी नहीं सकता. जो लोग कुंभ स्नान कर लौटे हैं, वे बताते हैं कि लगभग 10 किमी पैदल चलना पड़ता है. संगम स्थल पर स्नान करने जाने में बड़ी मुश्किल होती है, इसलिए अधिकांश लोग तट पर ही स्नान कर लेते हैं. त्रिवेणी स्नान के लिए नाव वालों को सिर्फ सुबह छह से शाम छह तक ही नाव ले जाने की अनुमति है.
संगम का भरम!
संगम स्थल या त्रिवेणी क्षेत्र का एरिया भी बहुत अधिक नहीं है. इस बार त्रिवेणी स्नान के लिए 100 मीटर के प्राकृतिक क्षेत्र को बढ़ा दिया गया है. गंगा के पानी को लिफ़्ट कर यमुना की तरफ़ लाया गया है. इस तरह यह क्षेत्र लगभग ढाई किमी का हो गया है. किंतु इतनी संख्या में नावें नहीं है जो स्नान करने वालों को ले जा सकें. दिल्ली से वाया कानपुर जाने वाले वाहनों को नेहरू पार्किंग में रोक दिया जाता है. वहां से इंदू हॉस्टल तक के लिए फ़्री बस सेवा है. मगर वहां से त्रिवेणी जाने के लिए मीटर के दायरे में ही स्नान करना पड़ता है. कुम्भ स्नान के लिए जाने वाले हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि वह संगम में जाए. किंतु संगम में जाना सुगम नहीं.
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