कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में हुआ था.
आज के दौर में ऐसे प्रसंगों पर सहज विश्वास नहीं किया जाएगा लेकिन वे सच हैं. राज्य के उस मुख्यमंत्री के पास उनके बहनोई नौकरी की आस में पहुंचे थे. कुछ देर बाद उन्होंने जेब से पचास का नोट निकाल उन्हें सौंपा. सलाह दी कि उस्तरा और अन्य सामान खरीद कर पुश्तैनी धंधा अपना लीजिए. इस मुख्यमंत्री के फटे कुर्ते को देख उस बड़े नेता ने जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने, साथी नेताओं के बीच अपना कुर्ता फैलाया. कुछ सौ रुपए फौरन ही जुटे. जिनके लिए यह रकम इकट्ठा की गई, उनसे कहा कि इससे कुर्ता-धोती ही लीजिएगा. कहीं और न इस्तेमाल कीजियेगा. सहज भाव से रुपए लेते हुए उनका उत्तर था कि इसे मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दूंगा. वे कर्पूरी ठाकुर थे.
दिग्गज समाजवादी नेता. जीवन पर्यंत गरीबों, पिछड़ों और वंचितों के हक में जूझे. दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे. एक मकान या फिर जमीन का टुकड़ा भी नहीं जुटा सके. पिछले साल नरेंद्र मोदी की सरकार ने भारत रत्न से मरणोपरांत अलंकृत किया था.
बिहार में हाई स्कूल में अंग्रेजों की अनिवार्यता खत्म की
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर आजादी के संघर्ष में 1942 में पहली बार जेल गए. बाद में अनेक आंदोलनों में उनकी जेल यात्राएं चलती रहीं. 1952 में पहली बार विधायक चुने गए. फिर लगातार विधायक रहे. बीच में 1977 में एक बार सांसद भी निर्वाचित हुए. 1967 की संविद सरकार में वे उपमुख्यमंत्री बने. शिक्षा विभाग भी उनके पास था. यह उनका ही प्रयास था कि इस सरकार में जनसंघ और कम्युनिस्ट एक साथ आए. सिर्फ ग्यारह महीने का उनका कार्यकाल था.
उन्होंने हाई स्कूल परीक्षा के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी. इसकी वजह थी कि अधिकतर लड़कियां अंग्रेजी के कारण फेल हो रही थीं. इससे उनकी आगे की पढ़ाई और विवाह मुश्किल हो जाते थे. उन्होंने मिशनरी स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने की शुरुआत कराई. हाई स्कूल तक की निःशुल्क पढ़ाई की भी व्यवस्था की. उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा दिया. गरीब – कमजोर लोग पैसे की किल्लत के चलते पढ़ने से वंचित न रहें, इस दिशा में भरसक प्रयास किए.
हिंदी में कामकाज और पिछड़ों को आरक्षण
मुख्यमंत्री के उन्हें दो संक्षिप्त कार्यकाल मिले. दोनों को मिलाकर लगभग ढाई साल वे इस पद पर रहे. पहली बार 22 दिसंबर 1970 से 12 जून 1971 और दूसरी बार 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 तक उन्होंने सरकार की अगुवाई की. लेकिन कम समय में ही उन्होंने बड़े काम किए. उन्होंने गैर लाभकारी जमीन खत्म करके किसानों को राहत दी. हिंदी में सरकारी कामकाज को अनिवार्य कर दिया. मंडल कमीशन से भी पहले मुंगेरी लाल कमीशन के जरिए नौकरियों में पिछड़ों के आरक्षण की उन्होंने व्यवस्था की. हालांकि, इसके चलते वे अगड़ों की नाराजगी के केंद्र बने लेकिन पिछड़ों – वंचितों के हितों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते वे अडिग रहे.
छोटी कोशिशें-बड़े संदेश
कर्पूरी समाज के कमजोर वर्गों के आगे लाने के लिए अपने छोटे प्रयासों से भी बड़े संदेश देते थे. उनके मुख्यमंत्री बनने के पूर्व राज्य सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को लिफ्ट के प्रयोग की इजाज़त नहीं थी. उन्होंने इस भेदभाव को खत्म किया. उनकी सोच थी कि सिर्फ सरकार के भरोसे समाज नहीं बदलेगा. ऐसी कोशिशें समाज के भीतर से होनी चाहिए. इसलिए जहां भी उन्हें अंतरजातीय विवाह की जानकारी मिलती, वहां वे दंपति को आशीर्वाद देने पहुंच जाते थे.
युवाओं के रोजगार को लेकर वे इतने सजग थे कि एक कैंप में एक साथ नौ हजार डॉक्टरों और इंजीनियरों को उन्होंने नौकरियां दे दीं. दलित, शोषित और वंचित वर्ग का उत्थान उनके जीवन का मकसद था. उन्होंने बेहद सादा जीवन जिया. उनका सरल स्वभाव, ईमानदारी, स्पष्ट विचार, दृढ़ इच्छाशक्ति और ओजस्वी वक्तृता लोगों को उनकी ओर आकर्षित करती थी.
बिहार में पिछड़ों को प्रभावी बनाया
बिहार में पिछड़ों के उत्थान और वहां की राजनीति में उनकी निर्णायक भूमिका की आधार भूमि कर्पूरी ठाकुर ने तैयार की. इसमें उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के साथ ही निजी जीवन में कथनी-करनी में कोई फर्क न होने का बड़ा योगदान था. समर्थक जानते थे कि उनका नेता सिर्फ भाषणों में ईमानदार नहीं है. वो सिर्फ गरीबों के दुख-दर्द की मंच से बात नहीं करता. बल्कि निजी जिंदगी में भी वो उतना ही प्रेरक और ईमानदार है.
अपने पहले मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में उन्होंने बेटी का विवाह किया. वे चाहते थे कि विवाह मंदिर से हो. पत्नी के अनुरोध पर उन्होंने इसे गांव से किया. लेकिन व्यवस्था की कि कोई मंत्री इस विवाह में न पहुंचने पाए. यहां तक कि आस-पास के किसी हवाई अड्डे पर विमान उतरने की भी उन्होंने इजाजत नहीं दी. उनके मुख्यमंत्री रहते ही गांव के कुछ सरहंगों ने पिता का उत्पीड़न किया. अधिकारी तुरंत दोषियों को पकड़ लाए. कर्पूरी ने कहा छोड़ दीजिए. अधिकारियों ने घटना बताई. कर्पूरी ने कहा क्या कीजियेगा? गांव-गांव तो यही हो रहा है.
मुख्यमंत्री इतना निर्धन!
डॉक्टर भीम सिंह की किताब “महान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर” में उनकी सादगी और ईमानदारी के अनेक संस्मरण संजोए गए हैं.आज के पतनशील दौर में कठिनाई से उन पर विश्वास होता है. पटना के कदमकुंआ स्थित जे.पी. के निवास पर चंद्रशेखर, नाना जी देशमुख सहित अनेक बड़े नेता उपस्थित थे.
कर्पूरी उन दिनों राज्य के मुख्यमंत्री थे. उनका फटा कुर्ता देखकर किसी साथी ने कहा कि एक राज्य के मुख्यमंत्री के कपड़ों के लिए कितने पैसे की जरूरत होगी? चंद्रशेखर ने तुरंत ही कुर्ता फैला दिया. जल्दी ही कुछ सौ रुपए इकट्ठा हो गए. चंद्रशेखर ने ये रुपए कर्पूरी को सौंपते हुए कहा इससे कुर्ता-धोती ही खरीदिएगा. सहज भाव से उसे स्वीकार करते हुए कर्पूरी ने उन्हें अपना इरादा बता दिया. कहा इसे मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दूंगा.
मार्शल टीटो ने दिया कोट
1952 में पहली बार विधायक चुने जाने के बाद एक प्रतिनिधिमंडल में उन्हें ऑस्ट्रिया जाने का अवसर मिला. किसी साथी का कोट लिया. वो भी फटा था. युगोलास्विया भी गए. मार्शल टीटो ने उनका फटा कोट देखा. फिर टीटो ने उन्हें एक कोट भेंट किया. चौधरी देवी लाल उनकी निर्धनता देखकर परेशान हो गए थे. पटना के अपने एक मित्र से उन्होंने कह रखा था कि कर्पूरी कभी दस-बीस हजार मांगें तो दे देना. मैं कर्जदार रहूंगा. फिर किसी मौके पर देवीलाल ने पूछा कि कर्पूरी ने कभी पैसे मांगे? मित्र का उत्तर नकारात्मक था.
कर्पूरी हमेशा रिक्शे पर चले. कार की खरीद और उसकी मेंटेनेंस लायक पैसा कभी नहीं जुटा सके. नेता विपक्ष रहते किसी अवसर पर उन्होंने एक साथी विधायक से कुछ देर के लिए उनकी जीप मांगी थी. उन्होंने तेल न होने के बहाने से इनकार कर दिया था. साथ में यह भी पूछ लिया था कि दो बार मुख्यमंत्री रहे. कार क्यों नहीं खरीद लेते आठवें दशक में पटना में विधायकों/ पूर्व विधायकों को सस्ते दर पर जमीन मिल रही थी.
साथियों ने कर्पूरी से कहा कि कोई जमीन-मकान नहीं रहेगा तो आपके बाद बच्चे कहां जाएंगे? कर्पूरी ने जमीन नहीं ली. जवाब दिया कि परिवार गांव चला जायेगा. कर्पूरी के 17 फरवरी 1988 को निधन के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गांव पहुंचे थे. कर्पूरी के घर की हालत देख वे रो दिए थे. अपनी जिंदगी में कर्पूरी ने पुत्र राम नाथ ठाकुर को राजनीति में नहीं आने दिया.
फिलहाल जद (यू) कोटे से मोदी सरकार में मंत्री हैं. कर्पूरी जब भी किसी पद पर रहते और पुत्र को पत्र लिखते तो उसमें तीन बातें जरूर रहती थीं, तुम इसके प्रभाव में न आना. कोई लालच न करना. मेरी बड़ी बदनामी होगी.
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