देवघर में बैजनाथ धाम मंदिर
यदि आप बैजनाथ धाम गए होंगे तो मंदिर शिखर पर एक चमकती हुई चीज जरूर देखी होगी. यह चमकती हुई चीज कोई बिजली का बल्ब नहीं है. भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक इस रावणेश्वर मंदिर के शिखर पर साक्षात चंद्रकांत मणि है. वही चंद्रकांत मणि, जिसका जिक्र शिवपुराण में कई बार आया है. एक समय यह चंद्रकांत मणि कुबेर के खजाने की अमूल्य निधि हुआ करती थी. बाद में जब राक्षसराज रावण ने कुबेर से पुष्पक विमान छीना तो उसी समय इस मणि पर भी कब्जा कर लिया था.
अब सवाल उठता है कि लंका पति रावण के खजाने से चलकर हजारों किमी दूर यह चंद्रकांत मणि झारखंड के देवघर स्थित बैजनाथ धाम के शिखर तक कैसे पहुंची. इस सवाल के जवाब में एक लंबी कहानी है, यहां हम आप को संक्षिप्त में बता रहे हैं. वैसे तो शुरू से ही देवघर झारखंड के इस प्रसिद्ध ज्योर्तिलिंग पर शिवभक्तों की खूब भीड़ लगती रही है, लेकिन देश की आजादी के बाद यहां देश और दुनिया भर से खूब श्रद्धालु आने लगे. ऐसे में मंदिर के एक ही दरवाजे से सभी शिवभक्तों का प्रवेश और निकास में दिक्कत आने लगी.
1962 में खुदाई के दौरान मिला चंद्रकांत मणि
ऐसे में मंदिर प्रबंधन और झारखंड सरकार ने साल 1962 में मंदिर के एक दीवार को तोड़ कर दूसरा दरवाजा बनाने का काम शुरू किया था. इसके लिए लगातार तीन दिन तक खुदाई चलती रही. तीसरे दिन की दोपहर में अचानक से एक मजदूर के फावड़े से कोई धातु जैसी चीज टकराई. जब वहां से मिट्टी हटाई गई तो वहां कोई तेज चमकती हुई अजीब सी चीज पड़ी थी. मजदूरों ने ठेकेदार और ठेकेदार ने इसकी सूचना मंदिर मंदिर प्रबंधन को दी. मंदिर प्रबंधन ने ही इस चमकती हुई चीज की जानकारी पुलिस, प्रशासन और राज्य सरकार को दी.
विद्वानों की राय पर मंदिर शिखर पर स्थापित कराया
इसके बाद तमाम विद्वानों से इस चीज की जांच कराई गई. उस समय पुरातत्व विभाग ने इस चीज को प्रचीन तो माना, लेकिन इसे पहचानने से इंकार कर दिया. इसके बाद मंदिर के पुजारी से लेकर धर्म शास्त्र के जानकार लोगों के सामने इस चीज को रखा गया. इस दौरान विद्वानों ने शिव पुराण और स्कंद पुराण, रावण संहिता समेत अन्य ग्रंथों में वणित चंद्रकांत मणि के लक्षणों से इस चीज का मिलान किया और घोषणा की कि यह चीज कोई धातु या लाइट नहीं, बल्कि यह साक्षात चंद्रकांत मणि ही है. उसके समय विद्वानों से विचार विमर्श के बाद इस मणि को बैजनाथ मंदिर के ही शिखर पर स्थापित कर दिया गया.
कुबेर से रावण ने छीन ली थी यह मणि
कहा गया है कि भगवान शिव के मस्तक से बेहतर इस मणि को रखने के लिए कोई और स्थान नहीं हो सकता. दूसरे यह कि यहां आने वाले श्रद्धालु सहज ही इस मणि के दर्शन कर सकेंगे. अब जान लीजिए कि यह मणि यहां कैसे आई. विद्वानों का मानना है कि एक समय में यह मणि दो हिस्सों में थी. इसे भगवान शिव ने देवताओं को दिया था. देवताओं ने इनमें से एक मणि को लक्ष्मी जी को दे दिया तो दूसरी मणि कुबेर को दे दी. लंबे समय तक यह मणि कुबेर के खजाने में रही. इधर, जैसे ही रावण की शक्ति बढ़ी, उसने कुबेर से पुष्पक विमान छीन लिया. उसी समय रावण की नजर कुबेर के खजाने में पड़ी इस चंद्रकांत मणि पर पड़ी तो उसने इस पर भी कब्जा कर लिया.
ज्योर्तिलिंग के समय ही जमीन में धंसी थी यह मणि
रावण हमेशा इस मणि को अपने साथ रखता था. वहीं कैलाश पर्वत से शिवलिंग लंका ले जाते समय यह ज्योतिलिंग देवघर में ही स्थापित हो गई, उस समय रावण ने इसे उठाने का काफी प्रयास किया. वह इस प्रयास में तो असफल हुआ ही, लेकिन इसी प्रयास में चंद्रकांत मणि से भी हाथ धो बैठा. देखते ही देखते यह शिवलिंग और चंद्रकांत मणि दोनों जमीन में धंस गए. बाद में बैजू नाम के चरवाहे ने मिट्टी हटाकर शिवलिंग को तो प्रकट कर दिया, लेकिन चंद्रकांत मणि जमीन में ही दबी रह गई. जिसे 1962 में बाहर निकाला गया.
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