
तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा.
गंगोत्री से 25 किमी पहले एक घाटी मिलती है, हर्षिल. यहां गंगा पार करने के बाद तीन किमी की चढ़ाई है और उसके बाद मुकबा नाम का गांव है. यह भारत का आख़िरी गांव है. दीवाली के बाद गंगोत्री मंदिर से गंगा जी की शोभा और उनके वस्त्र यहां लाए जाते हैं. फिर यहीं पर गंगा आरती संपन्न होती है. अक्षय तृतीया के बाद गंगा की यह मूर्ति पुनः गंगोत्री मंदिर में प्रतिष्ठित होती है. गंगोत्री मंदिर के पुरोहित सैमवाल पुजारियों का यह गांव हैं. यहां अधिकतर मकान लकड़ी के बने हुए हैं. जाड़ों में यहां बर्फीले तूफ़ान चलते हैं और अक्सर हिम तेंदुआ (SNOW LEOPARD) दिख जाते हैं. गांव के पीछे वनस्पति विहीन ऊंचे-ऊंचे पहाड़ हैं और उसके बाद तिब्बत है. इंडो तिब्बतन बॉर्डर फ़ोर्स (ITBP) के जवान वहां तैनात रहते हैं. हर्षिल भी मिलिट्री का बेस कैम्प है.
मुकबा से तिब्बतियों का नाता
मुकबा के पुराने लोग बताते हैं कि 1962 के पहले तिब्बती व्यापारी यहां नमक की ख़रीदारी करने आते थे. घोड़ों पर सवार इन तिब्बती व्यापारियों के घोड़े पहाड़ों पर चढ़-उतर जाते. लंबे समय तक तिब्बत पर मंगोलिया का राज रहा इसलिए वहां के अधिकतर व्यापारी हट्टे-कट्टे मंगोलियन ही होते. 1951 में तिब्बत पर चीन ने क़ब्ज़ा कर लिया इसलिए तिब्बत सीमा को चीन सीमा कहा जाने लगा. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (PRC) के अधीन होते ही तिब्बत की स्वायत्तता और आध्यात्मिकता नष्ट हो गई. वहां के आध्यात्मिक गुरु और शासक दलाई लामा भागकर भारत आ गए. यहां हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के निकट मकलोड गंज में उनको बसाया गया. आज दलाई लामा की निर्वासित सरकार यहीं से चलती है. विश्व में लाखों तिब्बती शरणार्थी बसे हैं.
1950 से 1959 तक हजारों तिब्बतियों को मारा गया
1950 में चीन की सेना ने तिब्बत पर हमला किया था और 1951 में वह चीन के अधिकार में आ गया. लेकिन समझौते की संधियों के अनुसार, चीन ने तिब्बत को स्वायत्तशाषी क्षेत्र का दर्जा दिया था. पर 1959 में जब तिब्बत में PRC सैनिकों के अत्याचारों के ख़िलाफ़ स्थानीय जनता ने बग़ावत की तब चीन ने क्रूरतापूर्वक तिब्बती स्वतंत्रता के लड़ाकों का दमन किया. एक ही दिन में 2000 तिब्बती योद्धाओं को क़त्ल किया गया. लाखों तिब्बती भागकर भारत, नेपाल और भूटान पहुंचे. चीन ने तिब्बत की स्वायत्तता समाप्त कर दी और दलाई लामा की सरकार गिरा दी. 5 अप्रैल 1959 को पंचेन लामा ने तिब्बत की सरकार को अपने नियंत्रण में ले लिया. करीब 87000 तिब्बती इस संघर्ष में मारे गए. मौजूदा दलाई लामा, जो कि 14वें दलाई लामा हैं, भी भागकर भारत आ गए.
तिब्बत में 1950 के पहले कोई चीनी अधिकारी नहीं था
संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी चीन के इस कदम के लिए उसकी भर्त्सना की. मगर चीन की PRC सरकार ने तिब्बत के सारे मठों को बंद कर दिया अथवा उजाड़ दिया. पूरे तिब्बत में चीन के क़ानून और रीति-रिवाज़ लागू कर दिए गए. अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (IJC) ने 26 जुलाई 1959 को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता पुरुषोत्तम त्रिकमदास की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई थी. इस समिति का निष्कर्ष था कि 1912 से 1950 तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश रहा था. वहां पर न तो कोई चीनी अधिकारी था न चीन की सरकार का कोई हस्तक्षेप. पर 1950 में चीन ने तिब्बत को भरोसा दिलाया कि वह तिब्बत पर अधिकार नहीं चाहता बल्कि दोनों देशों के बीच दोस्ताना संबंध रखना चाहता है. इस तरह अक्टूबर 1950 में चीनी अधिकारी तिब्बत में घुसे.
चीन का भरोसा एक छलावा था
19 अक्तूबर 1950 को चीनी सेना ने तिब्बत के चामडो इलाके पर कब्जा कर लिया. दिसंबर 1950 में दलाई लामा अपने मंत्रिमंडल को लेकर सिक्किम सीमा के क़रीब यातुंग चले गए. एक प्रतिनिधिमंडल चीन की राजधानी पीकिंग (अब बीजिंग) गया और एक 17 सूत्री समझौता हुआ. इसमें एक शर्त थी कि तिब्बत की रक्षा के लिए PRC सेना तिब्बत में रहेगी लेकिन तिब्बत की स्वायत्तता को बरकरार रखा जाएगा. दलाई लामा की शक्तियां यथावत रहेंगी. चीन सिर्फ बाहरी सुरक्षा को संभालेगा और पड़ोसी देशों से व्यापार का मामला तिब्बत के लोगों के पास पूर्ववत रहेगा. तिब्बत के मठों, वहां की भाषा और रीति-रिवाज़ में चीन कोई भी दखल नहीं करेगा. 1956 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर नेहरू को भरोसा दिया कि तिब्बत चीन का प्रांत नहीं स्वायत्तशाषी क्षेत्र है.
सांस्कृतिक क्रांति के दौर में तिब्बत में चीनियों की बसावट
उन्होंने नेहरू से यह भी कहा था कि तिब्बत में चीन समाजवाद को नहीं थोपने वाला. लेकिन 1957 में माओत्सेतुंग ने कहा कि 1958-1962 के बीच तिब्बती जनता की इच्छा के अनुरूप सुधार लागू होंगे. यह सांस्कृतिक क्रांति का दौर था और माओत्सेतुंग का सौ फूल खिलने दो का नारा बहुत चर्चित हुआ था. अब धीरे-धीरे चीन तिब्बत की स्वायत्तता को नष्ट कर रहा था. तिब्बत के दो लाख लोगों को जबरन यातना शिविर में भेजा गया. सड़क निर्माण के नाम पर उन्हें बर्फीले इलाक़ों में मरने को छोड़ दिया गया. उनकी आवाज को दबाया गया. तिब्बत की 30 लाख की आबादी में से 3 लाख लोग चीनियों की आक्रामकता को देखकर देश से चले गए. उधर 1957 तक 50 लाख के करीब चीनी तिब्बत में बसाए गए.
चीनी नियंत्रण वाले अखबार ने भगवान बुद्ध को भी नहीं बख्शा
अपनी आबादी को कम होता देख 1959 में तिब्बतियों का ग़ुस्सा फूट पड़ा. देश में चीनियों और तिब्बतियों के बीच संघर्ष में एक लाख तिब्बती मारे गए. तिब्बत के मठों, लामाओं और स्वयं भगवान बुद्ध के विरुद्ध अभियान चलाया गया. पुरुषोत्तम त्रिकम दास ने PRC के नियंत्रण में निकलने वाले तिब्बती भाषा दैनिक अखबार करज़े में 22 नवंबर 1958 के अंक में लिखवाया गया, “धर्म पर विश्वास करना निरर्थक है. धर्म निरंकुश सामंतों का साधन है और धर्म लोगों को कोई लाभ नहीं पहुंचाता. इसे समझाने के लिए हम बौद्ध धर्म की उत्पत्ति की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का पता लगाते हैं. बौद्ध धर्म के संस्थापक भारत के राजा सुदोधन (शुद्दोधन) के पुत्र शाक्य मुनि थे. उनका राज्य उस समय के सभी भारतीय राज्यों में बहुत आक्रामक था. यह हमेशा छोटे राज्यों पर आक्रमण करता था. शाक्य मुनि के शासनकाल में, उनकी प्रजा ने उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया और बाद में अन्य छोटे राज्य भी उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. जब उन्होंने शाक्य मुनि पर हमला किया तो उन्होंने हार स्वीकार कर ली लेकिन लड़ाई के बीच से भाग निकले. चूंकि उनके पास कोई और रास्ता नहीं था, इसलिए वे जंगलों में भटक गए. बौद्ध धर्म की स्थापना करके उन्होंने लोगों के मन में निराशा और आलस्य पैदा किया, उनका साहस कमजोर किया और इस तरह उन पर फिर से आधिपत्य स्थापित करने के अपने लक्ष्य तक पहुँच गए. यह तथ्य इतिहास में दर्ज है”.
अगला दलाई लामा तिब्बत के बाहर से होगा
तिब्बत में चीनियों की आबादी बढ़ती गई. चीन ने ल्हासा तक आधुनिक विकास का ऐसा जाल बिछा दिया कि चीन में दलाई लामा सिकुड़ रहे हैं. पंचेन लामा और करमापा लामा की तरह अगले दलाई लामा के नाम पर विवाद हो गया है. दलाई लामा ने कहा है कि 15वें दलाई लामा का चयन परंपरा से चली आ रही पद्धति से होगा. किंतु उनका यह कहना कि अगले दलाई लामा का पुनर्जन्म तिब्बत से बाहर होगा. उन्होंने कहा कि 15वें दलाई लामा को मान्यता उनके द्वारा स्थापित NGO देगा. इस पर विवाद हो गया है. इस पर चीन सरकार ने कहा है कि 15 वें दलाई लामा का चयन तिब्बत के अंदर सदियों से चली आ रही परंपराओं से होगा. दूसरी तरफ़ भारत के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री किरण रिजिजू ने चीन के बयान पर आपत्ति दर्ज की है. उनके अनुसार मौजूदा दलाई लामा जो कहेंगे वही होगा.
दलाई लामा की परंपरा यथावत् रहेगी
मकलोड गंज में निर्वासित तिब्बत सरकार के निर्णय पर अमल गादेन फोडरंग ट्रस्ट कर रहा है. 24 सितंबर 2011 को बना यह ट्रस्ट ही अगले दलाई लामा के पुनर्जन्म पर मुहर लगाएगा. ट्रस्ट के सचिव ने कहा है कि दलाई लामा संस्था चलती रहेगी. 15वें के बाद 16वें दलाई लामा का भी पुनर्जन्म होगा. हर दलाई लामा अपने पुनर्जन्म के कुछ संकेत देता है. मौजूदा दलाई लामा 90 वर्ष के होने जा रहे हैं. ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि मौजूदा 14वें दलाई लामा अपने पुनर्जन्म के कुछ संकेत देंगे. 2 जुलाई को मकलोड गंज में धार्मिक नेताओं की बैठक में दलाई लामा का यह वीडियो संदेश जारी हुआ. उन्होंने यह भी कहा कि 2011 में इस बात पर विचार हुआ था कि भविष्य में दलाई लामा की परंपरा रखी जाए या नहीं.
दलाई लामा और चीन में भिड़ंत
दलाई लामा के अनुसार इस पर गहन मंथन हुआ. दुनिया भर में फैले तिब्बती शरणार्थियों ने दलाई लामा से आग्रह किया था कि यह संस्था चलने दी जाए. दलाई लामा अपने पुनर्जन्म का संकेत दें. तब उन्होंने कहा था कि अपने 90वें जन्मदिन के आसपास वे स्पष्ट करेंगे. इसीलिए दो जुलाई को उन्होंने यह बात कही कि अगला दलाई लामा तिब्बत के बाहर जन्म लेगा. चीन इसका प्रतिवाद कर रहा है क्योंकि दलाई लामा की संस्था तिब्बत में PRC को मान्यता नहीं देगी.
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