
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, कनाडा के पीएम मार्क कार्नी
कनाडा में सोमवार को हुए फेडरल पार्लियामेंट के चुनाव में लिबरल पार्टी की जीत का श्रेय USA के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को मिलना चाहिए. ट्रम्प स्वयं अमेरिका (USA) की अनुदारवादी रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैं लेकिन पड़ोसी देश कनाडा में उन्होंने उदारवादी लिबरल पार्टी को जीत दिलाने में पूरी मदद की. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के पहले माना जा रहा था कि कनाडा में एक दशक से सत्ता पर क़ाबिज़ लिबरल पार्टी की विदाई 2025 में तय है.
मगर ट्रंप के टैरिफ वार और बार-बार कनाडा को USA का 51वां राज्य बनाने की उनकी घोषणा का असर यह पड़ा कि लिबरल पार्टी का ग्राफ तेजी से बढ़ने लगा. कनाडा के लिए 2025 का यह संघीय चुनाव बहुत महत्त्वपूर्ण था. डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति का पदभार ग्रहण करते ही कनाडा से होने वाले आयात पर भारी कर लगा दिया, इससे कनाडा को बहुत झटका लगा और कनाडा के लोग कंजर्वेटिव पार्टी से दूर हो गए.
राजनीति की बजाय आर्थिक मोर्चे पर ध्यान दिया
जस्टिन ट्रूडो के बाद कनाडा के प्रधानमंत्री बने मार्क कार्नी का राजनीतिक न होना उनके और लिबरल पार्टी के लिए फ़ायदेमंद रहा. टैरिफ़ वार, महंगाई और बेरोज़गारी के अभूतपूर्व संकट से जूझते कनाडा को कार्नी के रूप में एक खेवनहार मिला. मार्क कार्नी ने कूटनीतिक लड़ाई लड़ने की बजाय आर्थिक मोर्चे पर ध्यान केंद्रित किया. कुछ सुधार किए और भविष्य में टैक्स कटौती का वायदा किया. आवास संकट के मोर्चे पर और अधिक आवास मुहैया कराने पर फ़ोकस किया. अक्टूबर में फ़ेडरल पार्लियामेंट के चुनाव होने थे मगर कार्नी ने उन्हें छह महीने पहले 28 अप्रैल को करवा लिए. इसका लाभ यह हुआ कि जस्टिन ट्रूडो के चलते पब्लिक में अलोकप्रिय हुई लिबरल पार्टी को ताक़त मिली. और इस चुनाव में पहले से अधिक ताकतवर हो कर वह उभरी. कनाडा का यह संघीय चुनाव भारत के लिए भी बेहद महत्त्वपूर्ण था.
जस्टिन ट्रूडो का भारत विरोध
2015 में जस्टिन ट्रूडो लिबरल पार्टी के नेता चुने गए थे और प्रधानमंत्री का पद संभाला था. तब से जस्टिन ट्रूडो भारत के विरुद्ध कोई न कोई ऐसा बयान दे देते जिससे उनके और भारत के बीच काफ़ी खटास पैदा हो रही थी. भारत में माना जा रहा था कि वे ख़त्म हो चुके ख़ालिस्तान आंदोलन को वे हवा दे रहे हैं. अपने बयानों में वे अक्सर ख़ालिस्तान आंदोलन के समर्थकों को उकसाते भी थे. वे लिबरल पार्टी से थे इसलिए भी वे USA के तब के राष्ट्रपति बराक ओबामा और 2020 में राष्ट्रपति बने जो बाइडेन का करीबी समझा जाता था. दक्षिण एशिया में USA के डेमोक्रेट्स भारत की मोदी सरकार के विरुद्ध महीन कूटनीति खेलते रहते थे. जस्टिन ट्रूडो को डेमोक्रेट्स का पपेट समझा जाता था. मगर USA के रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपनी अमेरिका फ़र्स्ट नीति और अंध राष्ट्रवाद की दौड़ में अपने ही करीबी देशों पर हमलावर हो गए.
51 वां राज्य बनाने का विरोध
कनाडा की पूरी दक्षिणी सीमा USA से घिरी हुई है. एक तरफ़ प्रशांत महासागर, दूसरी तरफ़ अटलांटिक और आर्कटिक महासागर तथा उत्तर में हिमाच्छादित उत्तरी ध्रुव. ऐसे में उसका सारा व्यापार USA से होता है. कनाडा के माल से लदे ट्रक USA जाते रहते हैं. अमेरिका कनाडा के साथ अपने छोटे भाई जैसा व्यवहार करता रहा है. पर अचानक USA ने कनाडा के माल पर भारी आयात कर लगा दिया और आरोप लगाया कि कनाडा अपनी सीमाओं पर चौकसी नहीं बरतता इसलिए कनाडा के जरिये अवैध प्रवासी USA में घुस आते हैं. ट्रम्प ने कनाडा को USA का ही 51 वां राज्य बता दिया. मज़े की बात यह कि कनाडा कुल क्षेत्रफल USA के कुल एरिया से सवा लाख वर्ग किमी अधिक है. एक इतने बड़े संप्रभु देश को अपना ही राज्य बनाने की घोषणा कनाडा के लोगों को पसंद नहीं आई.
ट्रंप के आते ही ट्रूडो के सुर बदल गए थे
2016 में जब डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार USA के राष्ट्रपति बने थे तब जस्टिन ट्रूडो को USA के आगे दब्बू समझा जाता था. उस समय भी डोनाल्ड ट्रम्प उनको गवर्नर ट्रूडो कह कर बुलाते थे. 2024 की नवंबर में ट्रम्प जब दोबारा राष्ट्रपति बने तब पहली शिष्टाचार भेंट में ट्रम्प ने कनाडा के प्रधानमंत्री को गवर्नर ट्रूडो कह कर ही संबोधित किया. वाशिंगटन DC में यह सुन कर ट्रूडो वापस ओटावा लौट आए किंतु इस बार उनके सुर बदले थे. उन्होंने ट्रंप के टैरिफ़ के विरोध में USA से आने वाले माल पर जवाबी टैरिफ़ लगाने की घोषणा की और स्पष्ट कहा कि कनाडा कभी अमेरिका के अधीन नहीं रहा. इसलिए ट्रम्प कनाडा को 51 वां राज्य का सपना देखना बंद करें. जस्टिन ट्रूडो के इस जवाबी हमले का असर लोगों पर पड़ा और कनाडा की पब्लिक ने अमेरिकी माल का इस्तेमाल करने तथा हर वीकेंड पर अमेरिका घूमने जाने की अपनी आदत पर लगाम लगाई.
NDP के अलग होने से अल्पमत में थे ट्रूडो
चुनाव पूर्व सर्वे में जस्टिन ट्रूडो और लिबरल पार्टी दोनों को कंज़र्वेटिव पार्टी के मुक़ाबले में काफ़ी पीछे बताया गया. कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता पियरे पोलिव्रे ट्रूडो की नीतियों पर काफ़ी आक्रामक थे. कनाडा को महंगाई से उबारने तथा बेरोज़गारी दूर करने की बात कर रहे थे. लेकिन इसके बावजूद लिबरल पार्टी की छवि ट्रंप के टैरिफ़ वार के कारण मज़बूत होने लगी थी. इसलिए लिबरल पार्टी ने ट्रूडो की अगुआई में चुनाव लड़ने से मना किया. इसके पहले सितंबर 2023 को लिबरल पार्टी की सहयोगी NDP ने उनसे नाता तोड़ लिया था. इसलिए ट्रूडो अल्पमत की सरकार चला रहे थे. इसी बीच कंज़र्वेटिव पार्टी के मुखिया पियरे पोलिव्रे ने अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी. NDP के अध्यक्ष जगमीत सिंह ने भी इस प्रस्ताव के पक्ष में मत देने की बात कही.
आर्थिक मंदी से उबारने वाले कार्नी
इस घोषणा से घबराए ट्रूडो ने 16 जनवरी को संसद की बैठक मार्च तक के लिए स्थगित कर दी तथा लिबरल पार्टी को 14 मार्च तक नया नेता खोजने को कहा. नए नेता और नए प्रधानमंत्री की रेस में कई लोग थे. ट्रूडो का संकेत मार्क कार्नी की तरफ़ था. जो बैंक ऑफ़ कनाडा के अध्यक्ष रह चुके थे और 2013 से 2020 तक बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के गवर्नर भी. 2008 की मंदी में उन्होंने कनाडा को आर्थिक संकट से उबारा था. 9 मार्च को लिबरल पार्टी के अंदर हुए चुनाव में उन्हें जीत मिली और 14 मार्च को उन्होंने कनाडा के 24 वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. मार्क कार्नी ने आते ही कनाडा को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कई घोषणाएं कीं. GST वगैरह में कटौती की बातें कहीं. इन सबके चलते लिबरल पार्टी ने सोमवार को हुई पोलिंग में न सिर्फ अपना शानदार प्रदर्शन किया बल्कि प्रतिद्वंदी कंज़र्वेटिव पार्टी के मुखिया पियरे पोलिव्रे खुद चुनाव हार गए.
नरेंद्र मोदी ने बधाई दी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्क कार्नी को जीत की बधाई दी है. माना जा रहा है कि भारत कनाडा संबंध अब फिर से सुधरेंगे. यूँ भी मार्क कार्नी 14 मार्च 2025 को प्रधानमंत्री बनते ही अपनी प्राथमिकता में भारत से संबंध सुधारने के मुद्दे को ऊपर रखते आए हैं. इसलिए भारतीयों का काफ़ी वोट उन्हें मिला है. जस्टिन ट्रूडो के समय भारत से कनाडा के संबंध इतने ख़राब हो गए थे कि भारतीयों का झुकाव कंज़र्वेटिव पार्टी के मुखिया पियरे पोलिव्रे की तरफ़ हो गया था. पोलिव्रे ब्राम्पटन के दशहरा मेला में भी पिछले वर्ष आए और दिवाली की बधाई दी थी. इसलिए हिंदू मतदाताओं का रुझान उनकी तरफ़ हो गया था. परंतु मार्क कार्नी के आने से समीकरण बदलने लगे. अल्ट्रा लेफ़्ट और खालिस्तानी आंदोलन को अभिव्यक्ति की आज़ादी बताने वाले जगमीत सिंह से सिखों ने भी दूरी बरत ली.
जगमीत सिंह ने पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ा
ब्रिटिश कोलम्बिया के वैंकूवर में NDP के प्रत्याशियों को जीत अवश्य मिली पर टोरंटो के निकट के पंजाबी बहुल शहर ब्राम्पटन में दो सीटों पर लिबरल जीते हैं. एक पर कंज़र्वेटिव. यहां भी NDP साफ़ हुई. न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (NDP) के अध्यक्ष जगमीत सिंह खुद भी भी चुनाव हार गए और उनकी पार्टी के सदस्यों की संख्या 24 से सात पर आ कर अटक गई. अलबत्ता इस बार क्यूबेक की फ़्रेंच अलगाववादी पार्टी ब्लॉक क्यूबेकॉइस ने शानदार जीत दर्ज की. उसे 23 सीटें मिली हैं. जगमीत सिंह लिबरल उम्मीदवार से चुनाव में पराजित हुए. उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया है.
सरकार बनाने की कसरत
मार्क कार्नी जीते अवश्य हैं पर सरकार बनाने के लिए उन्हें अभी बहुत कसरत करनी होगी. ध्यान रहे कंज़र्वेटिव पार्टी के सांसद भी इस बार अच्छी-ख़ासी संख्या में जीत कर आए हैं. कनाडा की फ़ेडरल संसद में अभी तक 338 सदस्य हुआ करते थे पर इस बार यह संख्या 343 कर दी गई है. अर्थात सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को संसद में 172 सदस्य चाहिए होंगे. लिबरल पार्टी 168 से ऊपर जाती नहीं दिख रही है. 2015 से लिबरल पार्टी को NDP का समर्थन मिलता रहा है. पर इस बार उसके मात्र 7 सदस्य जीते हैं और पार्टी के राष्ट्रीय पार्टी होने का दरजा भी छिन गया है. ज़ाहिर है, NDP के पास सौदेबाज़ी की पावर नहीं बची है. ब्लॉक क्यूबेकॉइस एक अलगाववादी पार्टी है तथा ग्रीन पार्टी ऑफ़ कनाडा को सिर्फ एक सीट मिली है. ऐसे में कार्नी किधर से तोड़-फोड़ करेंगे, यह देखना है.
लिबरल के अर्थशास्त्री की राजनीतिक परीक्षा
कनाडा में लिबरल की जीत से दुनिया भर में उदारवादियों को अच्छा संदेश मिला है. विश्व के अधिकांश देशों में इस समय अनुदारवादी लेफ्ट या राइट पार्टियां ही सत्ता में हैं. ऐसे में लिबरल पार्टी की जीत का असर तमाम वैश्विक समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सकारात्मक रहेगा. रूस, ब्राज़ील और चीन में अनुदार कम्युनिस्टों का शासन है तो इटली, जर्मनी, पुर्तगाल आदि में दक्षिणपंथियों का. क्रोएशिया, चेक गणराज्य, इटली, हंगरी, नीदरलैंड, फ़िनलैंड और स्लोवाकिया में तो दक्षिणपंथी अनुदारवादी पार्टियाँ सत्ता में हैं. यूनाइटेड किंगडम और फ़्रांस में ज़रूर लिबरल सरकारें हैं. ऐसे में कनाडा में लिबरल पार्टी की इस जीत का संदेश दूर तक जाएगा. मार्क कार्नी राजनेता नहीं हैं. वे एक अर्थशास्त्री हैं. इसलिए देश को आर्थिक संकट से उबारने में वे अवश्य सफल होंगे.
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