
बिरहोर जनजाति की कहानी
बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होना है. इसके मद्देनजर प्रदेश में मतदाता सूची विशेष पुनरीक्षण अभियान (Special Intensive Revision – SIR) चल रहा है. इसके जरिए चुनाव आयोग राज्य के एक-एक वोटरों की तलाश में जुटा है. इन सबके बीच, आयोग की नजर बिरहोर जनजाति के लोगों पर भी है, जोकि हर चुनाव में पीछे छूट जाते हैं. अभियान में लगे बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) को निर्देश दिए गए हैं कि वे बिरहोर समुदाय के लोगों को खोजकर उन्हें मतदाता सूची में शामिल करें. हालांकि, सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इन लोगों को ढूंढा कैसे जाए? बिरहोर जनजाति के लोग आमतौर पर जंगलों में रहते हैं या फिर खानाबदोश जीवन शैली अपनाए रहते हैं, जिससे इन तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है. फिर भी चुनाव आयोग की कोशिश है कि इस समुदाय के सदस्यों को वोटर लिस्ट में जोड़ा जाए, ताकि वे भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें.
बिरहोर जनजाति एक विलुप्तप्राय जनजाति है, जिसे भारत सरकार ने विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति (PVTG) के रूप में वर्गीकृत किया है. ‘बिरहोर’ नाम दो शब्दों से मिलकर बना है — ‘बीर’, जिसका अर्थ है जंगल, और ‘होर’, यानी मनुष्य. यह जनजाति पारंपरिक रूप से जंगलों में रहने और वन आधारित जीवन शैली अपनाने के लिए जानी जाती है.
वर्ष 2000 में बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद इस जनजाति के अधिकतर लोग झारखंड का हिस्सा बन गए. हालांकि, बिहार के कुछ जिलों — जैसे बांका, भागलपुर, पूर्णिया, कटिहार, गया, नवादा, सुपौल, किशनगंज, कैमूर और मधेपुरा में आज भी बिरहोर समुदाय के लोग मिल जाते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, देश में इस जनजाति की आबादी लगभग 10000 है.
खुद को सूर्य का वंशज बताते हैं
बिरहोर समुदाय में एक मान्यता प्रचलित है कि वे सूर्य देवता की ओर से आकाश से धरती पर गिराए गए थे. सात भाइयों में से तीन रायगढ़ और जशपुर में बसे, लेकिन एक भाई जंगल में अलग हो गया और वहीं उसका वंश बिरहोर कहलाने लगा. ये लोग खुद को सूर्य का वंशज बताते हैं.
बिरहोर लोग जंगलों के पास टांडा (बस्तियां) बसाते हैं. एक टांडा में 5 से 25 परिवार रहते हैं. इनकी झोपड़ियां लकड़ी, पत्तों और घास-फूस से बनी होती हैं और दो भागों में विभाजित होती हैं — एक रसोई व सोने के लिए, दूसरा अनाज और सामान के भंडारण के लिए. बिरहोर को दो भागों में बांटा गया है.
- जंगही या धानिया जो बसावट में रहते हैं.
- उथलु या भूलिया जो घुमंतू जीवन जीते हैं.
पारंपरिक जीवनशैली
बिरहोर समुदाय मुख्य रूप से शिकार, कंद-मूल, महुआ एकत्र करने और बांस से वस्तुएं बनाकर अपनी आजीविका चलाता है. वे सीमित पैमाने पर खेती भी करते हैं, जिसमें मक्का, कोदो और उड़द जैसी फसलें शामिल हैं. सालों पहले इस समुदाय के पुरुष केवल लंगोट पहनते थे और महिलाएं लुगड़ा. लेकिन समय के साथ इनके पहनावे में बदलाव आया है—अब महिलाएं साड़ी-ब्लाउज, लड़कियां सलवार-कमीज और पुरुष पैंट-शर्ट पहनने लगे हैं. महिलाओं के पारंपरिक आभूषणों में खिनवा, फुल, पट्टा, ऐठी और गुदने की आकृतियां प्रमुख हैं.
विवाह और पारिवारिक परंपराएं
बिरहोर समाज में विवाह की पहल वर पक्ष की ओर से की जाती है. दहेज के रूप में लड़की के पिता को चावल, दाल, शराब और वस्त्र दिए जाते हैं. विवाह की रस्म ढेड़ा (पुजारी) द्वारा संपन्न कराई जाती है. इनके समाज में विभिन्न प्रकार के विवाह प्रचलित हैं—पतरा विवाह, उढ़रिया विवाह (प्रेम विवाह), गोलन विवाह (विनिमय विवाह) और पुनर्विवाह. एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है. इनके प्रमुख गोत्रों में मोनियल, बघेल, बाड़ी, कछुआ आदि आते हैं. यदि परिवार में दो पत्नियां हैं, तो संपत्ति पर पहला अधिकार बड़ी पत्नी के पुत्र का होता है.
धार्मिक आस्था और मृत्यु से जुड़ी परंपराएं
बिरहोर सूर्य देवता को अपना प्रमुख आराध्य मानते हैं. इनके पूज्य देवी-देवताओं में बूढ़ी माई, मरी माई, देवी माय और ढुकाबोगा शामिल हैं. मृत्यु के बाद शव को दफनाया जाता है और साथ में मृतक के उपयोग की घरेलू वस्तुएं भी दफन की जाती हैं. ‘बिस्सर’ नामक रस्म के तहत मृतक की स्मृति में सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है.
मुख्यधारा से अब भी दूर
बिहार के गया जिले के गुरपा इलाके में रहने वाले बिरहोर समुदाय के लोग आज भी मुख्यधारा की सामाजिक व्यवस्था से बहुत हद तक कटे हुए हैं. यहां बिरहोर जनजाति के लगभग 20 परिवारों में 80 से अधिक लोग रहते हैं. सरकार की ओर से इनमें से कुछ परिवारों को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ दिया गया है. स्थानीय जनप्रतिनिधियों के अनुसार, बिरहोर लोग बाहरी लोगों से बातचीत करने में झिझकते हैं, विशेषकर महिलाएं नए और अनजान व्यक्ति को देखकर दूर हो जाती हैं. गांव की कारू बिरहोर और शामू बिरहोर बताती हैं कि उनके समुदाय में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं है. हालांकि स्कूल मौजूद है, लेकिन बच्चे वहां नहीं जाते. यहां कई लोगों के पास आज भी वोटर कार्ड तक नहीं है.
बिरहोर जनजाति आज भी विकास की मुख्यधारा से काफी पीछे है और उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक जागरूकता और बुनियादी अधिकारों की दिशा में विशेष प्रयासों की आवश्यकता है.
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