
इंसाफ की जीत या यूनुस की चाल?
जिस जमात-ए-इस्लामी को कभी बांग्लादेश की आजादी का विरोध करने के आरोप में चुनावी राजनीति से बाहर कर दिया गया था, अब वही पार्टी एक दशक बाद फिर से लोकतंत्र के मैदान में उतरने को तैयार है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब जमात-ए-इस्लामी चुनाव लड़ सकेगी. लेकिन इस फैसले को लेकर सवाल उठ रहे हैं. क्या ये इंसाफ की जीत है या फिर राजनीति की कोई नई चाल? आइए समझते हैं इस पूरी कहानी को.
बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने आज रविवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट ने चुनाव आयोग को जमात-ए-इस्लामी का पंजीकरण बहाल करने का आदेश दिया. इस फैसले के साथ ही 10 साल से ज्यादा समय तक चले कानूनी संघर्ष का अंत हो गया. जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख डॉ. शफीकुर रहमान ने इसे इंसाफ की जीत बताते हुए कहा कि यह फैसला लोगों के वोट देने के अधिकार को मजबूत करेगा. उन्होंने इस दिन को अल्लाह का इनाम बताया.
क्यों हुआ था पंजीकरण रद्द?
1971 में जब बांग्लादेश पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब जमात-ए-इस्लामी पर पाकिस्तान का साथ देने और स्वतंत्रता का विरोध करने के गंभीर आरोप लगे थे. यही नहीं, 2010 में बांग्लादेश सरकार ने युद्ध अपराधों के लिए जांच शुरू की और 2013 तक जमात के कई बड़े नेता दोषी करार दिए गए. इसके बाद 1 अगस्त 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी का पंजीकरण रद्द कर दिया और उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया गया.
पाबंदी, वापसी और यूनुस का रोल
आवामी लीग सरकार के दौरान जमात पर पूरी तरह से बैन लगा दिया गया था. 1 अगस्त 2024 को इस प्रतिबंध की पुष्टि हुई. लेकिन जब शेख हसीना सरकार का पतन हुआ और यूनुस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी, तो अगस्त 2024 में जमात से प्रतिबंध हटा दिया गया. अब, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पार्टी को वैधता भी मिल गई है. कोर्ट ने चुनाव आयोग को कहा कि वह जमात को फिर से पंजीकृत करे, हालांकि यह तय करना आयोग पर छोड़ा गया कि वह ‘तराजू’ चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल कर सकती है या नहीं.
जमात का इतिहास और सियासी सफर
जमात-ए-इस्लामी की जड़ें 1941 में सैयद अबुल आला मौदूदी द्वारा स्थापित संगठन से जुड़ी हैं. 1972 में बांग्लादेश की आजादी के बाद इसे बैन कर दिया गया, लेकिन 1979 में यह फिर से राजनीति में लौट आई. 1996 में यह पार्टी आवामी लीग के साथ, और 2001 से 2006 तक बीएनपी सरकार में भी हिस्सेदार रही. 2008 के चुनाव में इसे केवल दो सीटें मिली थीं, लेकिन इसका कट्टर धार्मिक और दक्षिणपंथी एजेंडा बांग्लादेश की राजनीति में प्रभावशाली रहा है.
फैसले पर बंटे सियासी सुर
जहां जमात और उसके समर्थकों ने इस फैसले को लोकतंत्र की जीत बताया है, वहीं विपक्ष और सिविल सोसायटी का एक बड़ा तबका इस फैसले पर सवाल उठा रहा है. कुछ लोगों का मानना है कि यह अंतरिम सरकार की रणनीति हो सकती है. पुराने राजनीतिक समीकरणों को फिर से मजबूत करने की कोशिश. खासकर तब, जब देश अगले आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है और सत्ता संतुलन बिगड़ रहा है.
क्या जनता माफ करेगी जमात को?
सवाल अब यह है कि क्या बांग्लादेश की जनता उस पार्टी को माफ कर सकेगी, जिस पर 1971 के अत्याचारों का आरोप है? क्या जमात वाकई बदल गई है या यह सिर्फ सत्ता में वापसी की कोशिश है? सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले ही कानूनी हो, लेकिन इसका असर अब सियासत और जनता की सोच पर पड़ेगा. आने वाले चुनाव इसका असली जवाब देंगे ये इंसाफ की जीत है या यूनुस की एक सियासी चाल.
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