साढ़े तीन साल से जारी रूस-यूक्रेन जंग में यूक्रेन की जीत चीन की हार साबित हो सकती है..आप ये सुनकर शायद हैरान होंगे, मगर कई विशेषज्ञों की कुछ ऐसी ही राय है.. इंटरनेशनल डिप्लोमेसी यानि कूटनीति में, चीन अपनी बारीकियों के लिए जाना जाता है. बीजिंग को शायद ही कभी भड़काऊ बातें करते हुए देखा गया हो, हालाँकि, हाल ही में चीन-ईयू की बैठक में, यूरोपीय अधिकारी चीन के विदेश मंत्री वांग यी की सख्त बातों से उस वक्त हैरान रह गए, जब उन्होंने कथित तौर पर अपने समकक्षों यानि दूसरे देशों के विदेश मंत्रियों से कहा कि चीन यूक्रेन युद्ध में रूस की हार को स्वीकार नहीं करेगा.
बैठक में भाग लेने वाले कुछ अंदरूनी लोग चीन में एक बेहद अहम शिखर सम्मेलन से ठीक तीन हफ्ते पहले वांग यी के कठोर संदेश से हैरान थे. यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष एंटोनियो कोस्टा और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन समेत यूरोपीय संघ के अधिकारी इस महीने के आखिर में व्यापार शिखर सम्मेलन के लिए बीजिंग की यात्रा करने वाले हैं.
रूस को हारने नहीं दे सकता चीन
यूक्रेन में रूस के युद्ध के समर्थन में चीन का ये अब तक का सबसे सीधा बयान था। South China Morning Post ने एक रिपोर्ट में इस बातचीत से परिचित सूत्रों का हवाला देते हुए लिखा है कि चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने 3 जुलाई को यूरोपीय संघ के शीर्ष राजनयिक काजा कैलास से कहा कि देश रूस को यूक्रेन में युद्ध हारने की इजाज़त नहीं दे सकता, क्योंकि उन्हें डर है कि इसके बाद अमेरिका अपना ध्यान बीजिंग की तरफ मोड़ देगा.
यूक्रेनी और यूरोपीय संघ की तरफ से ये बार-बार कहा जाता रहा है कि चीन की मदद के बिना रूस, यूक्रेन में अपना युद्ध जारी नहीं रख सकता. हालांकि, इसके जवाब में चीनी विदेश मंत्रालय ने हमेशा कहा है कि “चीन युद्ध के पक्ष में नहीं है और तीन साल पुराने युद्ध में तटस्थ बना हुआ है.
हालांकि, आमतौर पर मृदुभाषी माने जाने वाले वांग यी के ताज़ा बयान से पता चलता है कि चीन को अब इस युद्ध में तटस्थता का दिखावा करने को लेकर चिंता नहीं है. बीजिंग के बर्ताव में अचानक नाटकीय रूप से आए इस बदलाव ने यूरोपीय संघ के अधिकारियों को मुश्किल में डाल दिया है.

राष्ट्रपति जेलेंस्की और पुतिन. (फाइल फोटो)
चीन की रणनीतिक जरूरत है यूक्रेन युद्ध
चीनी विदेश मंत्री की कथित टिप्पणियों से पता चलता है कि यूक्रेन में रूस का युद्ध, चीन की रणनीतिक जरूरतों को पूरा कर सकता है, क्योंकि अमेरिका का ध्यान ताइवान में अपने संभावित हमले को शुरू करने के लिए बीजिंग की बढ़ती तैयारी से हट गया है.
चीन के साइडलाइन रहने के दावों के बावजूद, बीजिंग रूस के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक जीवन रेखा बन गया है, खासतौर पर पश्चिमी देशों की पाबंदियों के बाद मॉस्को को वैश्विक बाजारों से अलग कर दिया गया है. इस समर्थन ने रूस को अपनी अर्थव्यवस्था और ‘वॉर मशीन’ को बनाए रखने में मदद की है.
चीन और रूस के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2023 में रिकॉर्ड 240 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया था, जो फरवरी 2022 में रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला शुरू करने से पहले 2021 के आंकड़ों से 64% ज़्यादा है. चीन पहले से ही रूस का शीर्ष व्यापारिक साझेदार रहा है, लेकिन इस दौरान कुछ खास व्यापार क्षेत्रों में भारी उछाल देखा गया. उदाहरण के तौर पर, रूस को चीनी कारों और ऑटोमोबाइल पार्ट्स का निर्यात 2023 में 23 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जो 2022 में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर था.
चीन से टूल्स आयात करता है रूस
पिछले साल, पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा था कि रूस द्वारा आयात किए जाने वाले तकरीबन 70% मशीन टूल्स और 90% माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स चीन से आते हैं. ये माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स मिसाइलों, टैंकों और लड़ाकू विमानों के निर्माण में काफी अहम हैं. कार्नेगी एंडोमेंट थिंक टैंक के चीनी सीमा शुल्क डेटा विश्लेषण के मुताबिक, बीजिंग हर महीने रूस को 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा कीमत की दोहरे इस्तेमाल वाली चीज़ों का निर्यात करता है, जिन्हें कमर्शियल और सैनिक दोनों ज़रूरतों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. इस लिस्ट में सेमीकंडक्टर, दूरसंचार उपकरण और मशीन टूल्स भी शामिल हैं. ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के मुताबिक, चीनी कंपनियां रूस को नाइट्रोसेल्यूलोज भी उपलब्ध करा रही हैं, जो हथियारों के प्रणोदकों में एक प्रमुख घटक है, (प्रणोदक यानि कोई विस्फोटक या ईंधन जो किसी चीज़ को आगे बढ़ाता है.) साथ ही ड्रोन इंजन और सैटेलाइट तकनीकी से जुड़े कई और उपकरण भी उपलब्ध करा रही हैं.
इसके अलावा, रूस-चीन व्यापार का 90% हिस्सा अमेरिकी डॉलर के बजाय उनकी अपनी मुद्राओं (युआन और रूबल) में होता है, जिससे मॉस्को की पश्चिमी वित्तीय प्रणालियों पर निर्भरता कम हो जाती है. अप्रैल 2025 में, यूक्रेन ने चीन पर रूस को हथियार और बारूद सप्लाई करने का भी आरोप लगाया, हालांकि इसका कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं दिया गया. रूस को चीन की मदद की हैरान करने वाली बात यह है कि चीन खुद रूस के साथ 4,209 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है और सीमा के कुछ हिस्सों पर विवाद भी है. चीन ने ऐतिहासिक रूप से सोवियत संघ के साथ एक प्रतिकूल रिश्ता साझा किया है और रूस के सुदूर पूर्व में दोनों के बीच अभी भी अनसुलझे क्षेत्रीय मुद्दे हैं.
हालांकि, इन तमाम पेचीदा मुद्दों के बावजूद, चीन रूस को पूरा समर्थन क्यों दे रहा है? और, इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि तीन साल तक तटस्थता बनाए रखने के ढोंग के बाद, चीन अब युद्ध में निर्णायक रूसी जीत का खुलकर समर्थन क्यों कर रहा है? यूक्रेन में युद्ध चीन के हित में है यूक्रेन में रूस का युद्ध अमेरिका के कई रणनीतिक हितों को पूरा कर रहा है.
दरअसल, यह तर्क भी दिया जा सकता है कि शीत युद्ध के खत्म होने के बाद के तीन दशकों की तुलना में अमेरिका ने पिछले तीन सालों में रूस पर ज़्यादा रणनीतिक जीत हासिल की हैं. स्वीडन और फिनलैंड जैसे देश, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से रूस को लेकर तटस्थ रुख अपनाया, वो अब नाटो के सदस्य हैं। यूरोप पहले से कहीं ज़्यादा एकजुट है.
डिफेंस को गंभीरता से ले रहा यूरोप
दशकों की सुस्ती के बाद, यूरोप आखिरकार अपने डिफेंस को गंभीरता से ले रहा है, और दूसरे विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद पहली बार, यूरोपीय देशों का एक बड़ा हिस्सा अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि GDP का दो प्रतिशत से ज़्यादा डिफेंस पर खर्च कर रहा है. अमेरिका रूस के खिलाफ वास्तविक युद्ध में अपने हथियारों का परीक्षण और सुधार कर सकता है, और पेंटागन क्रेमलिन, उसके हथियारों के भंडार और उसकी सेना को बिना किसी अमेरिकी सैनिक को जमीन पर उतारे कमज़ोर कर सकता है.
इस सबके बावजूद, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प यूक्रेन युद्ध में युद्ध विराम समझौता कराने के लिए ओवरटाइम काम कर रहे हैं. ट्रम्प अपने पदभार ग्रहण करने के पहले दिन से ही युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. इसके विपरीत, चीन जो कथित तौर पर रूस का दोस्त है, चाहता है कि यह युद्ध जारी रहे.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
‘अपनी ताकत छिपाओ, अपना समय बिताओ’
दरअसल, 1970 के दशक के उत्तरार्ध में माओ के सुधार के बाद के युग में, डेंग शियाओपिंग ने ताओगुआंग यांगहुई ने “अपनी ताकत छिपाओ, अपना समय बिताओ” की नीति अपनाई. इस नीति में जब तक कि बीजिंग पश्चिमी ताकतों को चुनौती देने के लिए पूरी तरह से मजबूत न हो जाए, पश्चिमी ताकतों के उकसावे या महंगे युद्धों में उलझने से बचना शामिल था, इसके बजाय आंतरिक विकास, सैन्य और तकनीकी रूप से आगे बढ़ने पर ध्यान केंद्रित करना था. चीन ने तकरीबन साल 2000 तक इस नीति का सख्ती से पालन किया, उसके बाद धीरे-धीरे इसने खुद को स्थापित करना शुरू किया.
चीन में इन दिनों एक मज़ाक चल रहा है कि Win-Win की स्थिति का मतलब है कि चीन दो बार जीतता है. यूक्रेन युद्ध बीजिंग के लिए वही Win-Win सिचुएशन है. एक तरफ, रूस कमजोर हो रहा है, जो पूरी तरह से चीन के प्रभाव क्षेत्र में आ रहा है. दूसरी तरफ, अमेरिका यूरोप में व्यस्त हो गया है. वक्त के साथ-साथ यूक्रेन युद्ध में चीन की भागीदारी और ज़्यादा प्रत्यक्ष होती जा रही है. ऐसा लगता है कि ट्रंप भले की कितनी भी कोशिश कर लें, कीव में शांति का रास्ता बीजिंग से होकर ही गुजरता है.
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