
उमराव जान में रेखा और डायरेक्टर मुजफ्फर अली
कहते हैं गुज़रा हुआ जमाना दोबारा नहीं आता लेकिन मुजफ्फर अली और रेखा की उमराव जान की री-रिलीज की सूचना से मानो नॉस्टेल्जिया लौट आया. गाने तो खूब देखे-सुने होंगे- इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं… दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए… ये क्या जगह है दोस्तो… जुस्तजू जिसकी थी… ये सभी गाने शहरयार ने लिखे थे, संगीत दिया था खय्याम ने और गाया था- आशा भोंसले ने. और जब कैमरे पर रेखा ने अपनी उम्दा अदायगी में उस अल्फाज, मौसिकी और आवाज पर दिलकश पेशकश दी तो एक तारीकी क्लासिकी वजूद में आई. उस वजूद की हस्ती आज तक बरकरार है. ये गाने जब भी कानों में गूंजते हैं, रेखा की हर लकीर आंखों में खिंच जाती है. अवध की वो शान चमक उठती है, अदब की दुनिया में जिसकी अपनी-सी मिसाल है.
फिल्मों के इतिहास में ऐसे मौके कभी-कभार ही आए हैं, जब सभी आर्ट फॉर्म एक-दूसरे से मुकम्मल तौर पर गूंथे दिखाई दिए. हर कलाकार ने अपना-अपना बेहतर दिया हैं. रेखा की उमराव जान फिल्म में ऐसा ही देखा. करीब चौवालीस साल के बाद एक बार फिर उमराव जान की वही अदाएं सिल्वर स्क्रीन पर दिखने वाली हैं. पीवीआर आईनॉक्स 27 जून शुक्रवार को इसे री-रिलीज करने जा रहा है. इस दिन एक खास जलसा भी रखा गया है. री-रिलीज करने के लिए फिल्म के प्रिंट को डिजिटली समृद्ध किया गया है. इसे 4K क्वालिटी में री-रिलीज किया जा रहा है ताकि आज की पीढ़ी के दर्शकों में दिलचस्पी जागे. री-रिलीज के मौके पर उमराव जान फिल्म की मेकिंग से जुड़ी एक कॉफी टेबुल बुक भी लॉन्च होगी. इस किताब में फिल्म से जुड़ी हरेक चीज़ मसलन पोशाकें, फोटोग्राफी, लोकेशन, सेट और पर्दे के पीछे की तमाम कहानियां होंगी.
NFDC ने भी दिखाई खासी दिलचस्पी
हाल के समय में कई फिल्मों को दोबारा रिलीज किया गया है. लेकिन उमराव जान की री-रीलीज में सरकारी विभागों मसलन नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया (NFAI) और नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (NFDC) ने भी खासी पहल की है. भारतीय सिनेमा की धरोहर मानते हुए संरक्षण के लिए इसे रिवाइव किया गया है. फिल्म को राष्ट्रीय विरासत मिशन का हिस्सा बनाया गया है. इसकी कालजयिता को सुरक्षित रखने का ध्येय है, जिसमें आने वाली पीढ़ियां शिद्दत से बनाए गए इस सिनेमा के आर्ट और खासतौर पर अवध की मिली-जुली संस्कृति को देख समझ सके.
फिल्म में रेखा के अलावा फारुख शेख, नसीरुद्दीन शाह, राज बब्बर, प्रेमा नारायण, दीना पाठक, भारत भूषण, लीला मिश्रा, युनुस परवेज़ और सतीश शाह जैसे कलाकारों ने अभिनय किया था. नवाब सुल्तान के तौर पर फारुख शेख, गौहर मिर्जा के तौर पर नसीरुद्दीन शाह और फ़ैज अली के तौर पर राजबब्बर की भूमिकाएं भी आज खूब याद की जाती है. फिल्म जितनी आर्थिक कठिनाइयों से बनी उतनी ही कठिनाइयां रिलीज के बाद भी सामने आईं लेकिन इसका निर्माण और निर्देशन इस क्वालिटी का था कि इसका हिस्सा बबने वाले सारे कलाकार आज भी याद किए जाते हैं.
पाकीजा से कमतर न रही उमराव जान
उमराव जान की ऐतिहासिकता के प्रमाण पर बहस अलग मुद्दा है लेकिन मुजफ्फर अली ने हादी रुसवा के नॉवेल पर आधारित इस फिल्म के जरिए जिस कल्चर को दिखाने का प्रयास किया वह इस फिल्म का सबसे बड़ा रसायन है, जिसमें समूचा हिंदुस्तान बसता है. फिल्म में जब उस्ताद खान साहब उमराव को क्लासिकल संगीत और नृत्य की तालीम देते हैं और गाते हैं- प्रथम धर ध्यान दिनेश… ब्रह्मा विष्णु महेश… तो इस रसायन को समझा जा सकता है. फिल्म में ऐसे अनेक नज़ीर हैं. ये कुछ ऐसा ही है जैसे कि मुगले आजम में अनारकली गाती है- मोहे पनघट पर छेड़ गयो नंदलाल रे… उमराव जान फिल्म मुगले आजम ही नहीं बल्कि मदर इंडिया, साहब बीबी और गुलाम या पाकीजा की तरह ही हिंदी की क्लासिक फिल्मों में अपना खास स्थान रखती है. कमाल अमरोही के निर्देशन में सन् 1972 में आई मीना कुमारी की पाकीजा से कमतर न थी उमराव जान.
इन्हीं खासियतों की वजह से उमराव जान को चार नेशनल अवॉर्ड्स मिले थे. रेखा को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, खय्याम को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, आशा भोंसले को सर्वश्रेष्ठ गायिका और मंजूर को सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. हालांकि खुद मुजफ्फर अली नेशनल अवॉर्ड पाने से चूक गए. उन्हें इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. उनके साथ रेखा और खय्याम को भी फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला.
रेखा के बारे में मुजफ्फर अली
उमराव जान के री-रिलीज से पूर्व फिल्म के निर्माता-निर्देशक मुजफ्फर अली ने एएनआई से एक खास बातचीत में रेखा के बारे में खुल कर अपने दिल की बातें कही हैं. उन्होंने कहा कि कोई भी कला दिल की गहराइयों से उम्दा हो पाती है. रेखा ने उमराव के किरदार को कला के उसी शिखर को छूने का काम किया. रेखा का वह किरदार निभाना एक सपने के सच होने जैसा ही था. रेखा न होती तो उमराव जान की आत्मा पर्दे पर साकार न होती.
उन्होंने कहा कि रेखा भी मेरे साथ सपने देख रही थी. फिल्म की शूटिंग के दौरान अक्सर ऐसा होता, जिसे मैं सोच पाता, रेखा पहले से ही उस पर काम कर रही होती थी. मुझे गर्व है कि वह मेरी उम्मीदों से कहीं बढ़कर उमराव बनी. फिल्म का सबसे अहम पक्ष ये था उमराव के दर्द को समझना और उसे पर्दे पर उभारना. उस हिसाब से रेखा ने केवल किरदार नहीं निभाया, वह उमराव ही बन गईं. उनके अभिनय में दर्द और कलात्मकता का अनोखा संगम दिखा.
उमराव जान का सच क्या है?
इतिहास में उमराव जान नाम की कोई गायिका, नर्तकी या शायरा थी या नहीं, इसको लेकर एक राय नहीं है. उमराव जान की कहानी भी अनारकली की तरह ही सवालों और संदेहों में रही है. फिर भी बहुत से लोगों का मानना है कि उमराव जान वास्तव में थी. इसका आधार 1904 में लिखा मिर्जा मोहम्मद हादी रुसवा लिखा उपन्यास है. इसे उर्दू का पहला उपन्यास भी माना जाता है.
जब मुजफ्फर अली ने सन् 1981 में हादी रुसवा के लिखे उपन्यास पर आधारित फिल्म बनाई तब भी यह सवाल उठा था कि उमराव जान कौन थी? तब इस फिल्म के लेखक जावेद सिद्दीकी ने कहा था कि उनकी फिल्म यह नहीं बताती कि उमराव जान थी या नहीं, यह तो उर्दू से बहुत ही पॉपुलर नॉवेल पर बनी थी. जहां तक उमराव जान के अस्तित्व की बात है कि इस संबंध में हमेशा से दो राय रही है. वैसे मेरा मानना है कि उनका कभी कोई अस्तित्व में नहीं था. अगर होता तो कहीं ना कहीं कब्र भी होती. रुसवा की किताब इतनी मशहूर हुई कि सभी को लगा कि उमराव जान एक वास्तविक चरित्र है.
हालांकि फायर ऑफ़ ग्रेस के लेखक अमरेश मिसरा मानते हैं कि उमराव जान वास्तव में थीं. वह को लेखक हादी रुसवा की उमराव से मुलाकात का दावा भी करते हैं, उनके मुताबिक 1882 में दोनों की मुलाकात हुई. उस वक्त उमराव जान की स्थिति खराब हो चुकी थी. वह बेसहारा जीवन जी रही थी.
लेखक हादी रुसवा के बारे में जानें
मिर्जा मोहम्मद हादी रुसवा पेशे से एक शिक्षक और लेखक भी थे. उनका जन्म सन् 1857 में हुआ था. उन्होंने कुल पांच उपन्यास लिखे. इसमें उन्होंने एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की अमीरन की कहानी लिखी, जिसका बचपन में अपहरण कर लिया जाता है और उसका नाम बदलकर उमराव जान रख दिया जाता है. हादी रुसवा को इस उपन्यास से काफी प्रशंसा मिली. उनका निधन 1931 में हुआ था. निधन से पहले हैदराबाद में बस गए थे.
उमराव जान पर कई फिल्में बन चुकी हैं. सबसे पहली फिल्म 1958 में आई थी, जिसका नाम था मेहंदी. उसके बाद 1975 में जिंदगी और तूफान आई. फिर मुजफ्फर अली ने 1981 सबसेअलग फिल्म आई, इसके बाद 2006 में जेपी दत्ता ने इसी नाम से फिल्म बनाई, जिसमें अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय ने मुख्य भूमिका निभाई थी. लेकिन अभी तक जितनी भी फिल्में उमराव जान पर आधारित बनी है, उनमें मुजफ्फर अली की फिल्म ही सबसे बेहतर मानी गई. वह नॉवेल जितना क्लासिक था, यह फिल्म भी उतनी ही क्लासिक बनी.
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