देश में आजादी के बाद पहली बार जाति आधारित जनगणना कराने की घोषणा की गई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बुधवार को कैबिनेट कमेटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स (CCEA) की बैठक में यह निर्णय लिया गया. बैठक के बाद केंद्रीय सूचना एवं संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि सरकार ने मूल जनगणना के साथ जातीय जनगणना कराने का फैसला लिया है. इस दौरान उन्होंने कांग्रेस पर इसे लंबे समय से दरकिनार करने का आरोप लगाया. साथ ही कहा कि कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों ने इसका सिर्फ राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है.
वहीं, अब केंद्र सरकार की ओर से जातीय जनगणना कराने को मंजूरी मिल गई है. इसे विपक्षी पार्टियों पर एक बड़ा पॉलिटिकल स्ट्राइक के तौर पर देखा जा रहा है. कांग्रेस, सपा और आजेडी समेत कई पार्टियों इसको लेकर पिछले कई साल से सरकार पर दबाव बना रही है. वहीं, अब सरकार के ऐलान के बाद सभी पार्टियों एक साथ इसका समर्थन कर रही है. वहीं, कई इसे बिहार चुनाव से भी जोड़ रहे हैं. हालांकि, अगर जनगणना इस साल शुरू हो जाता है तो इसके आंकड़े 2026 के अंत तक आने की उम्मीद है.
राहुल गांधी कई साल से कर रहे थे मांग
केंद्र सरकार की जातीय जनगणना के फैसले के बाद सभी राजनीतिक दल अब एक मंच पर आ गए हैं. कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पिछले 3-4 साल से देश का X-ray बताकर जाति जनगणना की मांग को सरकार पर हमलावर रहे हैं. उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘कहा था ना, मोदी जी को ‘जाति जनगणना’ करवानी ही पड़ेगी, हम करवाकर रहेंगे. इससे साफ हो जाएगा कि देश की संस्थाओं और power structure में किसकी कितनी भागीदारी है.’ देश में आजादी से पहले साल 1931 में जनगणना के दौरान सभी जातियों की गणना की गई थी.
विभाजन के डर से नेहरू ने कर दिया था बंद
आजादी से पहले भारत में 1881 से 1931 के बीच की गई जनगणना के दौरान सभी जातियों की गणना की गई थी. लेकिन 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को छोड़कर जाति गणना को बंद करने का फैसला किया. यह निर्णय इस विश्वास पर आधारित था कि जाति पर ध्यान केंद्रित करने से विभाजन को बढ़ावा मिल सकता है और एक नए स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न हो सकती है.
एक दशक बाद 1961 में, केंद्र सरकार ने राज्यों से कहा कि वे चाहें तो अपने स्तर पर सर्वेक्षण कराएं और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूचियां तैयार करें. वहीं, 6 दशक से अधिक समय बाद अब अलग-अलग राजनीतिक दलों की मांगों के बाद सरकार ने अगली राष्ट्रव्यापी जनगणना में जाति गणना को शामिल करने का निर्णय लिया है.
कैसे एक राजनीतिक मुद्दा बन गई?
जातीय जनगणना को लेकर समय-समय पर आवाज उठता रहा है. इसका सबसे बड़ा कारण आरक्षण है. साल 1980 में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर मंडल आयोग की सिफारिश ने जाति को फिर से राजनीतिक चर्चा में ला दिया. जाति संबंधी व्यापक आंकड़ों की कमी ने ओबीसी आबादी की सही पहचान और मात्रा निर्धारित करना चुनौतीपूर्ण बना दिया, जिससे जाति जनगणना की मांग बढ़ गई.
वहीं, साल 2011 में, यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना करवाई, जो 1931 के बाद से देश भर में जाति के आंकड़े एकत्र करने का पहला प्रयास था. हालांकि, एसईसीसी 2011 के आंकड़ों को कभी भी पूरी तरह से जारी या उपयोग नहीं किया गया, जिसके कारण विपक्षी दलों और जाति-आधारित संगठनों ने इसकी आलोचना की.
बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक ने कराए सर्वे
राष्ट्रीय जातिगत जनगणना के अभाव में, बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों ने हाल के सालों में अपने-अपने यहां जाति सर्वेक्षण कराए हैं. इन सर्वेक्षणों का उद्देश्य राज्य-विशिष्ट आरक्षण नीतियों और कल्याण कार्यक्रमों का समर्थन करने के लिए आंकड़े एकत्र करना था. 2023 में बिहार सरकार ने जाति सर्वे कराया. इसके आधार पर आरक्षण भी बढ़ाई गई लेकिन मामला कोर्ट में चला गया और इसपर रोक लग गई.
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