![जिंदगी और मौत के हिसाब-किताब की रात, मुसलमान क्यों मनाते हैं शब-ए-बारात? जिंदगी और मौत के हिसाब-किताब की रात, मुसलमान क्यों मनाते हैं शब-ए-बारात?](https://achchhikhabar.in/wp-content/uploads/2025/02/shab-e-barat-4.jpg)
मुसलमान क्यों मनाते हैं शब-ए-बारातImage Credit source: Photos Credit: Getty Images
शब-ए-बारात की आज रात है. इस्लाम में शब-ए-बारात की खास अहमियत है. इस्लामिक कैलेंडर के लिहाज से आठवां यानी शाबान के महीने की 15वीं तारीख की रात में शब-ए-बारात मनाई जाती है, जो गुरुवार को देश भर में मनाई जाएगी. जिंदगी और मौत का सारा हिसाब-किताब शब-ए-बारात पर होता है. इसीलिए शब-ए-बारात इबादत, फजीलत, रहमत और मगफिरत की रात मानी जाती है. यह रात अल्लाह अपने बंदों के लिए एक नया मौका देता है कि वे अपने अतीत की गलतियों को सुधारें और नेक रास्ते पर चलें.
शब-ए-बारात गुरुवार शाम को मगरिब की अजान होने के साथ मुसलमान मनाना शुरू कर देते हैं. पूरी रात अल्लाह की इबादत करते हैं और शुक्रवार को शाबान का रोजा रखते हैं. शब-ए-बारात अरबी भाषा का शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है. पहला शब है, जिसका अर्थ रात है जबकि ‘बरात’ के मायने क्षमा है. इस तरह से माफी की रात भी कही जा सकती है. इसीलिए लोग रात भर इबादत करते हैं और अल्लाह अपने बंदों की हर एक दुआ कुबूल करता है. इसी कारण इस रात हर कोई अपने गुनाहों की माफी मांगता है.
शब-ए-बारात क्यों मनाते हैं मुसलमान
इस्लामिक स्कॉलर और दिल्ली के फतेहपुरी मस्जिद के इमाम मुफ्ती मुकर्रम कहते हैं कि आमतौर पर लोग शब-ए-बारात कहते हैं, लेकिन सही मायने में इसे शब-ए-बराअत कहा जाना चाहिए. इनमें पहला शब्द ‘शब’ का मतलब रात है, दूसरा बराअत है जो दो शब्दों से मिलकर बना है, यहां ‘बरा’ का मतलब बरी किए जाने से है और ‘अत’ का अता किए जाने से, यानी यह (जहन्नुम से) बरी किए जाने या छुटकारे की रात होती है. इसीलिए शब-ए-बारात को इबादत, फजीलत, रहमत और मगफिरत की रात कहा जाता है.
इबादत की अहम रातों में से एक रात
इस्लाम में कई रातें ऐसी हैं, जो बाकी की सभी रातों से ज्यादा अहमियत रखती हैं. इनमें शब-ए-कद्र की पांच रातें, जो रमजान के तीसरे अश्रे में आती हैं. ये रमजान की 21, 23, 25, 27 और 29 तारीख की रात हैं. इसके अलावा मेअराज की रात और शब-ए-बारात की रात है. इस्लाम में ये सात रातों की अपनी अहमियत और फजीलत है. इन सभी सातों रातों में मुस्लिम समुदाय के लोग पूरी रात अल्लाह की इबादत करते हैं और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफी मांगते हैं.
शब-ए-बारात के लिए इस्लाम में कहा जाता है कि इस रात को की जाने वाली हर जायज दुआ को अल्लाह जरूर कुबूल करते हैं. इस पूरी रात लोगों पर अल्लाह की रहमतें बरसती हैं. इसीलिए मुस्लिम समुदाय के लोग रात भर जागकर नमाज और कुरान पढ़ते हैं. इतना ही नहीं मुस्लिम समुदाय के लोग अपने पूर्वजों की कब्रों पर जाकर उनकी मगफिरत की दुआ करते हैं.
जिंदगी-मौत के हिसाब-किताब की रात
शब-ए-बारात पिछले एक साल में किए गए कर्मों का लेखा-जोखा तैयार करने और आने वाले साल की तकदीर तय करने वाली रात होती है. इस रात में पूरे साल के किए गुनाहों का हिसाब-किताब भी किया जाता है और लोगों की किस्मत का फैसला भी होता है. शब-ए-बारात की रात की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हदीस में इसे गुनाहों से निजात पाने और दुआएं कबूल होने की रात बताया गया है. इस रात को अल्लाह अपने बंदों की दुआएं सुनता है, उनकी तकदीर लिखता है और जो सच्चे दिल से तौबा करता है उनके गुनाह माफ करता है.
शब-ए-बारात की रात पर इंसानों की मौत, रिज्क और उनकी जिंदगी के फैसले अल्लाह लिखता है. अल्लाह अपने बंदों के अगले साल की तकदीर का फैसला लिखता है. इस रात को अल्लाह के जानीब से बंदों के लिए रोजी-रोटी, हयात-व-मौत व दिगर काम की सूची तैयार (फेहरिस्त) की जाती है. इसलिए यह रात दुआ करने और अल्लाह से भलाई मांगने के लिए बहुत अहम मानी जाती है. मुस्लिम समुदाय के लोग रात भर जागकर न सिर्फ अपने गुनाहों से तौबा करते हैं बल्कि अपने उन बुजुर्गों की मगफिरत के लिए भी दुआ मांगते हैं, जिनका इंतकाल (निधन) हो चुका होता है. इसीलिए लोग इस मौके पर कब्रिस्तान भी जाते हैं, जहां पर फातिहा पढ़ते हैं.
नबी के कब्रिस्तान जाने का वाकया
हजरत-ए- आयशा के हवाले से हदीस शरीफ में भी जिक्र आता है कि मोहम्मद साहब 15 शाबान की रात में जन्नतुल बकी के कब्रिस्तान तशरीफ ले गए थे. वहां वे दुआ पढ़ रहे थे. उस रात वो हजरत-ए-आयशा रजियल्लाहो अन्हा के घर में थे.हजरत-ए- आयशा ने देखा कि मोहम्मद साहब घर में नहीं है तो उन्हें तलाश करने निकली तो देखा कि जन्नतुल बकी के कब्रिस्तान में दुआ कर रहे थे. इसीलिए इस रात कब्रिस्तान जाना और वहां दफन लोगों के लिए दुआ करना सुन्नत माना जाता है. मुसलमान इस रात में कब्रिस्तान जाते हैं और अपने अजीजों के लिए दुआ-ए-मगफिरत करते हैं.
हालांकि, अहले हदीस फिरके के मानने वाले मुसलमान इस बात को नहीं मानते हैं कि नबी जन्नतुल बकी के कब्रिस्तान गए थे. ऐसे में शब-ए-बारात की रात न कब्र पर जाते हैं और न ही रात भर इबादत करते हैं. शब-ए-बारात की रात हनफी मुसलक के लोग ज्यादा इबादत करते हुए नजर आते हैं. सुन्नी मुसलमानों का मानना है कि इसी पाक दिन पर अल्लाह के नूर के संदूक को बाढ़ से बचाया गया था. इसके अलावा पैंगबर मुहम्मद को शाबान की 15वीं तारीख में जन्नतुल बकी का दौरा करते देखा था. वहीं, शिया मुसलमानों का मानना है कि 12वें इमाम मुहम्मद अल मेंहदी की पैदाइश 15 शाबान को ही हुई थी. इसलिए शब-ए-बारात मनाई जाती है.
‘शब-ए-बारात’ मगफिरत की रात
शब-ए-बारात की रात मगफिरत की रात मानी जाती है. अल्लाह शब-ए-बारात की रात नर्क में यातनाएं झेल रहे मुसलमानों को आजाद करते हैं. इसलिए शब-ए-बारात पर लोग अपने मृत पितरों के कब्रिस्तान जाकर साफ-सफाई करते हैं, फूल चढ़ाते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं और प्रार्थना करते हैं. रात भर मुस्लिम समुदाय के लोग मस्जिद और घरों में इबादत करते हैं. मुसलमान अपने पूर्वजों की कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ते हैं और उनकी मगफिरत के लिए दुआ करते हैं.
हदीस में कहा गया कि अल्लाह इस रात अपनी रहमत के दरवाजे खोल देता है. मगरिब की आजान यानि सूरज डूबने से लेकर फज्र की नमाज सूरज उगने तक अपने बंदों पर खास रहमत की नजर करता हैं. अल्लाह पूछता है कोई ऐसा है जो अपने गुनाहों से माफी मांगे और मैं उसे बख्श दूं, है कोई रोजी का तलबगार, जिसे रोजी दूं, है कोई मुसीबत का मारा, जिसे मैं निजात दूं. यह सिलसिला सुबह फजर तक जारी रहता है. शब-ए-बारात की पूरी रात अल्लाह की इबादत में गुजारना बहुत बड़ी नेकी है. इस रात के पहले हिस्से में कब्रिस्तान जाकर पूर्वजों की कब्रों की जियारत करने और दूसरे हिस्से में कुरआन पाक की तिलावत, नफल व तहजूद की नमाज अदा कर रो-रो कर अल्लाह से अपने गुनाहों की मगफीरत मांगने से अल्लाह बंदों के गुनाहों की बख्शीश कर देता है.
शब-ए-बारात पर रोजा रखना
शब-ए-बारात पर रोजा रखने की परंपरा है. मुस्लिम समुदाय शब-ए-बारात के अगले दिन रोजा रखते हैं. यह रोजा फर्ज नहीं है बल्कि इस्लाम में नफिल रोजा कहा जाता है. माना जाता है कि शब-ए-बारात के अगले दिन रोजा रखने से इंसान के पिछली शब-ए-बारात से इस शब-ए-बारात तक के सभी गुनाह माफ कर दिए जाते हैं. हालांकि, मुसलमानों में कुछ का मत है कि शब-ए-बारात पर एक नहीं बल्कि दो रोजे रखने चाहिए. पहला शब-ए-बारात के दिन और दूसरा अगले दिन. इस तरह तमाम मुस्लिम समुदाय के लोग रोजा भी रखते हैं. एक तरह से रमजान शुरू होने से पहले शाबान का रोजा एक तरीके से प्रेक्टिस के तौर पर भी होता है.
शब-ए-बारात की रात की बड़ी फजीलत है. अल्लाह मुसीबत के मारों को मुसीबत से निजात देते हैं. खुद से बंदों को मुआफ करना और बख्शना चाहते हैं. इस रात में भी कुछ लोगों को माफ नहीं किया जाता है. ये वो बदनसीब हैं, जो रिश्ते-नाते को तोड़ने वाले, मां-बाप की नाफरमानी करने वाले. इन बुराइयों से दूर रहकर खुद को अल्लाह से करीब रखना शब-ए-बराअत का असल पैगाम है.
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