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क्या केजरीवाल की हार फ्रीबीज के अंत का आगाज है?

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Feb 9, 2025    150844 views     Online Now 485
क्या केजरीवाल की हार फ्रीबीज के अंत का आगाज है?

अरविंद केजरीवाल

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की AAP का हारना राजनीति में एक ठोस बदलाव का संकेत है. यह बदलाव सारे राजनीतिक दलों के नेताओं की आंखें खोलने वाला है. वह यह कि जनता अब मुफ्त की रेवड़ियां नहीं चाहती, वह एक बेहतर सरकार चाहती है. एक ऐसी सरकार जो काम करे. अब वायदों और चुनावी घोषणाओं का युग समाप्त हुआ. पब्लिक ने यह भी स्पष्ट कर दिया सरकार वह चाहिए जो लोक कल्याण के काम करे. इस या उस समुदाय के लिए रेवड़ियां ही न बांटे. ऐसी सरकार चाहिए जो सभी को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार दे. फ्री की रेवड़ियों की तो घोषणाएं तो चुनाव के पहले होती हैं और सरकार में आते ही वह राजनीतिक पार्टी थोड़ा-बहुत बांट कर बैठ जाती है. हल्ला मचा तो कह देगी, वे घोषणाएं तो चुनावी जुमले थे.

लोकलुभावन नहीं लोक कल्याणकारी योजनाएंहों

अरविंद केजरीवाल और भाजपा के नेता चुनावी जुमले फेंकने में उस्ताद रहे हैं. लेकिन जमीन पर इन जुमलों पर अमल नहीं हो पाता और हो भी नहीं सकता क्योंकि सरकारी खजाना लगातार खाली होता जा रहा है. दूसरे ये रेवड़ियां सिर्फ फौरी होती हैं. हर परिवार की जो मूलभूत जरूरत होती है, वह इन रेवड़ियों से पूरी नहीं होतीं. लोग 2014 से अब तक 15 लाख पाने की आस में हैं. महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण की बजाय लाड़ली बहना जैसी योजनाओं से बहका लिया गया. भाजपा महिलाओं को 7200 रुपए साल देगी तो कांग्रेस ने 72000 का नारा दिया. भाजपा ने गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को 85 करोड़ परिवारों को फ्री राशन देने की योजना चलाई. किंतु क्या हुआ! वे आज भी गरीब के गरीब हैं. आज तक कभी कोई सर्वे किया गया कि BPL परिवार आज बढ़े क्यों? वे घट क्यों नहीं रहे?

जमीन पर काम करना सीखो

कभी भी इस बात पर भी नहीं सोचा गया कि फ्री राशन के बावजूद भूख से लोग क्यों मरते हैं. इतना आरक्षण और इतनी सुरक्षा के बाद भी दलित परिवार भय से क्यों घिरे रहते हैं? इसका जवाब है कि आजादी के 77 वर्ष बीत जाने के बाद भी कोई सामाजिक बदलाव नहीं हुआ. किसी भी राजनीतिक दल ने जमीनी स्तर पर जा कर चीजों के आमूल-चूल परिवर्तन पर ध्यान नहीं दिया. सरकारें बदलती रहीं और उनके पूज्य पुरुष भी किंतु किसी ने अपने आराध्य पुरुषों की शिक्षाओं पर ध्यान नहीं दिया. अरविंद केजरीवाल ने गांधी की बजाय अम्बेडकर और भगत सिंह की फोटो अपने सरकारी विभागों में लगवाईं पर क्या उनमें से किसी के बताये रास्ते पर वह चली. मायावती ने गांव-गांव में अम्बेडकर की प्रतिमाएंलगवाईं, उनके नाम पर पार्क और स्मारक बनवाए लेकिन दलितों पर अत्याचार होते रहे.

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आम आदमी को कोई सोशल गारंटी नहीं

खेतिहर मजदूर धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब होता रहा. किसानों में अमीरी तो बढ़ी किंतु किसी भी किसान ने अपने मजदूरों को पैसा देने में न्यूनतम मजदूरी की दर पर अमल नहीं किया. वे यदि MSP बढ़वाने पर जोर देते हैं तो उन्हें भी अपने मजदूरों को उचित मजदूरी देने पर विचार करना चाहिए. शहरी मजदूर के लिए भी कोई भी सोशल गारंटी अब नहीं रही. कारखाने अपने मजदूरों के कोई काग़ज़ श्रम विभाग को नहीं देते और श्रम विभाग भी कागजी खाना-पूरी करता रहता है. मजदूरों को राज्य के कर्मचारी बीमा निगम (ESIC) का कोई लाभ नहीं मिलता. उनके बीमार पड़ जाने की अवधि में कोई वेतन नहीं, कारखाने में काम करते समय कोई दुर्घटना हो जाने पर उसके लिए कोई पेंशन नहीं. तब सिर्फ बिजली-पानी फ्री करने या लैपटॉप बांटने जैसी योजनाओं से भला क्या होगा!

योजनाओं से लाभान्वित लोगों ने वंशवाद को हवा दी

आजादी के बाद का पहला दशक छोड़ दिया जाए तो सरकारों ने सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों और शहरी श्रमिकों के कल्याण के लिए कुछ नहीं किया. उलटे जो योजनाएं चली आ रही थीं उन्हें भी समाप्त कर दिया. इस दौरान जो भी लाभ मिले, वे सिर्फ़ खाते-पीते लोगों को मिले. गांव का गरीब दलित दलित ही रहा. वह अपने बच्चों को शिक्षा देने में भी नाकाम रहा. क्योंकि जो भी परिवार बढ़ गया उसने भी भविष्य अपने ही परिवार का संवारा. अपने समुदाय के उत्थान से वह दूर रहा. यही नहीं राजनीति में वंशवाद की बेल ऐसी फैली कि मैं और मेरे बाद मेरी संतान. जाहिर है जब दायरा सिमटा तो जीत के लिए नीतियों की बजाय लुभावने नारे दिये गए. फ्री की योजनाएं लाई गईं. परंतु मुफ़्त की योजनाएं मुफ़्त में ही जाती हैं.

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तमिलनाडु से शुरुआत

चुनावी रेवड़ियों की शुरुआत दक्षिण भारत के राज्यों से हुई. 1960 के दशक में तमिलनाडु में जब के कामराज की सरकार बनी तब उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए मिड डे मील योजना शुरू की थी. यद्यपि इसके पीछे उनकी मंशा हर बच्चे को शिक्षा देने की थी. के कामराज स्वयं एक बेहद गरीब परिवार से आए थे. उनकी पढ़ाई लिखाई भी नहीं हुई. वे न हिंदी बोल पाते थे न अंग्रेजी. तमिल के अलावा उन्हें अन्य कोई भाषा नहीं आती थी. लेकिन वे जमीनी राजनेता थे. जब वे राज्य के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने पाया गांवों में बच्चों की स्कूल आने में कोई रुचि नहीं है. एक बार एक गांव के बच्चे को पशु चराते देख उन्होंने पूछा, स्कूल क्यों नहीं जाते? बच्चे ने जवाब दिया, रोटी क्या तेरा बाप देगा. यह सुन कर उन्हें बहुत दुःख हुआ और उन्होंने स्कूल में बच्चों को मुफ़्त भोजन देने की व्यवस्था की.

दो रुपए किलो चावल

1982 में जब MGR तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने इस योजना पर विधिवत अमल शुरू किया. उन्होंने स्कूलों में बच्चों को दोपहर के समय गर्म और ताजा भोजन उपलब्ध करवाया. बाद में तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक NTR (नंदमूरि तारक रामराव) ने मतदाताओं को रिझाने के लिए दो रुपए प्रति किलो की दर चावल देने की शुरुआत की. हालांकि इसे फ्री की रेवड़ियां नहीं कह सकते. मई 2012 में आंध्र के मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने चावल की क़ीमत दो रुपए से घटा कर एक रुपए प्रति किलो कर दी थी. 1991 में जयललिता ने तमाम ऐसी योजनाएं शुरू कीं जिससे तमिलनाडु की दिशा-दशा बदल गई. उन्होंने ऐसे शिशुओं को सरकार द्वारा गोद लेने की घोषणा की जिन्हें उनके मां-बाप नहीं पालना चाहते थे. उन्होंने कहा, सरकार ऐसे शिशुओं के नाम भी नहीं उजागर करेगी.

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ताऊ देवीलाल रेवड़ियां उत्तर में लाए

लेकिन ऐसी योजनाओं को लोकलुभावन नारेबाजी नहीं कह सकते थे. ये चुनाव के पूर्व नहीं बल्कि किसी पार्टी द्वारा सरकार में आ जाने के बाद जारी की गईं. यह तो उस पार्टी की सरकार द्वारा लोक कल्याण हेतु घोषित की गईं. बाद में राजनीतिक दलों ने इन्हें वोट पाने का हथियार बना लिया गया. चुनाव के पूर्व साड़ी बांटने या लैपटॉप अथवा साइकिल बांटने जैसे आकर्षक नारे दिए गए. हरियाणा में बुजुर्गों को पेंशन देने की घोषणाएंहुईं. दक्षिण भारत के बाद मुफ़्त रेवड़ियों की शुरुआत ताऊ देवीलाल ने कीं. मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान सरकार ने तो महिला वोटरों को आकर्षित करने के लिए लाडली-बहना योजना शुरू की. बाद में महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार ने इस पर अमल किया और नतीजा सबके सामने है.

आम आदमी का सूझ-बूझ भरा फैसला

मगर 2014 से तो इनकी ही लूट होने लगी. अरविंद केजरीवाल ने तो सीमाएं ही तोड़ दीं और बिजली पानी मुफ्त देने की उनकी घोषणा ने धूम मचा दी. 2015 में 70 सीटों वाली विधानसभा में 67 सीटें और 2020 में 62 सीटें पाना ऐसी ही घोषणाओं का नतीजा था. भाजपा और कांग्रेस भी पीछे नहीं रहीं. हर एक ने अपने कोर वोटरों को लुभाने के लिए हर तरह के दांव-पेच चले. धार्मिक और जातीय नारे देने शुरू किए. शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने भी लोकलुभावन नारों पर संज्ञान लिया था. किंतु 5 फरवरी 2025 को मतदाताओं ने दिखा दिया कि हमें मुफ्त की रेवड़ियां नहीं चाहिए. यह आम आदमी का फैसला है. भविष्य के लिए इशारा भी कि अगर राजनीतिक दल न चेते तो उनका हश्र भी यही होगा. 2025 के चुनाव में अरविंद केजरीवाल की AAP मात्र 22 सीटों पर सिमट गई.

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